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मनःपर्यवज्ञान

मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम करने पर मनःपर्यवज्ञान होता है। मनःपर्यवज्ञान मनुष्य क्षेत्र (अढ़ाई द्वीप) में रहे हुए प्राणियों (सन्नी तिर्यंच और मनुष्य) के मन द्वारा परिचिन्तित अर्थ को प्रगट करनेवाला है। मनःपर्यवज्ञानप्रत्यक्ष एक प्रकार का इन्द्रियप्रत्यक्ष ज्ञान गुण प्रमाण है। 

क्षान्ति, संयम आदि गुण इस ज्ञान की उत्पत्ति के कारण हैं और यह चारित्रसम्पन्न अप्रमत्तसंयत को ही होता है। ऋद्धिप्राप्त अप्रमाद सम्यग्‌दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को ही मनःपर्यवज्ञान की प्राप्ति होती है। चारित्रलब्धियुक्त जीव को ही मनःपर्यवज्ञान होता है। पण्डितवीर्यलब्धि जीव को ही मनःपर्यवज्ञान होता है। कषायकुशील और निर्ग्रन्थ में मनःपर्यवज्ञान होता है, पुलाक, बकुश, प्रतिसेवनाकुशील और स्नातक में नहीं। 

  • वे केवल वैमानिकदेव का आयुष्य बाँधते हैं। 
  • आभिनिबोधिकज्ञानी यावत्‌ केवलज्ञानी जीवों में से सबसे अल्प मनःपर्यवज्ञानी हैं। 
  • मनःपर्यव ज्ञानी जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि मनःपर्यवज्ञानीपर्याय में रहता है।

हे आर्य ! इर्या – भाषा – एषणा – आदान भांड़ मात्र निक्षेपणा और उच्चार प्रस्नवण खेल सिंधाणक जल की परिष्ठापना, वो पाँच समितिवाले, गुप्तेन्द्रिय, गुप्तब्रह्मचारी, आत्मार्थी, आत्महितकर, आत्मयोगी, आत्मपराक्रमी, पाक्षिक पौषध (यानि पर्वतिथि को उपवास आदि व्रत से धर्म की पुष्टि समान पौषध) में समाधि प्राप्त और शुभ ध्यान करनेवाले निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी को पहले उत्पन्न न हुई हो वैसी चित्त (प्रशस्त) समाधि के दश स्थान उत्पन्न होते हैं। (७) मनःपर्यवज्ञान, जिससे ढाई द्वीप के संज्ञी – पंचेन्द्रिय के मनोगत भाव को जानते हैं।

मनःपर्यवज्ञान दो प्रकार से उत्पन्न होता है। ऋजुमति, विपुलमति। यह संक्षेप से चार प्रकार से है। द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से। 

  • द्रव्य से – ऋजुमति अनन्त अनन्तप्रदेशिक स्कन्धों को जानता व देखता है, और विपुलमति उन्हीं स्कन्धों को कुछ अधिक विपुल, विशुद्ध और निर्मल रूप से जानता व देखता है। 
  • क्षेत्र से – ऋजुमति जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र को तथा उत्कर्ष से नीचे, इस रत्नप्रभा पृथ्वी के उपरितन – अधस्तन क्षुल्लक प्रतर को और ऊंचे ज्योतिषचक्र के उपरितल को और तिरछे लोक में मनुष्य क्षेत्र के अन्दर अढाई द्वीप समुद्र पर्वत, पन्द्रह कर्मभूमियों, तीस अकर्मभूमियों और छप्पन अन्तरद्वीपों में वर्तमान संज्ञिपंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के मनोगत भावों को जानता व देखता है। और उन्हीं भावों को विपुलमति अढ़ाई अंगुल अधिक विपुल, विशुद्ध और तिमिररहित क्षेत्र को जानता व देखता है। 
  • काल से – ऋजुमति जघन्य और उत्कृष्ट भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग भूत और भविष्यत्‌ काल को जानता व देखता है। उसी काल को विपुलमति उससे कुछ अधिक, विपुल, विशुद्ध, वितिमिर जानता व देखता है। 
  • भाव से – ऋजुमति अनन्त भावों को जानता व देखता है, परन्तु सब भावों के अनन्तवें भाग को ही जानता व देखता है। उन्हीं भावों को विपुलमति कुछ अधिक, विपुल, विशुद्ध और निर्मल रूप से जानता व देखता है।

आगम उल्लेख 

  1. अरहंत भगवान जब सामायिक चारित्र अंगीकार करते हैं , उसी समय अरहंत को मनुष्यधर्म से ऊपर का उत्तम मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होता है। श्रमण भगवान महावीर को क्षायोपशमिक सामायिकचारित्र ग्रहण करते ही मनःपर्यवज्ञान समुत्पन्न हुआ; वे अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों में स्थित पर्याप्त संज्ञीपंचेन्द्रिय, व्यक्त मन वाले जीवों के मनोगत भावों को स्पष्ट जानने लगे। आचारांग सूत्र श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना
  2. मल्लि अर्हत्‌ के संघ में सतावन सौ मनःपर्यवज्ञानी मुनि थे। समवयांग सूत्र समवाय-५७
  3. कौशलिक अर्हत्‌ ऋषभ के १२६५० विपुलमति – मनःपर्यवज्ञानी थे। जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र वक्षस्कार २ काळ