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जातिस्मरण ज्ञान

संज्ञि ञान / जातिस्मरणज्ञान, संज्ञी जीवों को प्राप्त होने वाला ज्ञान जिनसे अपने पूर्व के भव और जाति का स्मरण होता है।

शुभ अध्यवसाय से, शुभ परिणाम से और विशुद्ध होती हुई लेश्याओं से तदावरणीय कर्मों (जातिस्मरण को आवृत्त करनेवाले ज्ञानवरणिय कर्मों) के क्षयोपशम से और ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए संज्ञीपूर्व जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न होता है। भगवती सूत्र शतक-११ उद्देशक-११ काल 

आगम उल्लेख 

  1. सुदर्शन श्रमणोपासक / श्रेष्ठी - भगवती सूत्र शतक-११ उद्देशक-११ काल। मोक्ष पाया।
  2. मेरुप्रभ (मेघ कुमार का पूर्व हाथी का भव) - ‘लगता है जैसे इस प्रकार की अग्नि की उत्पत्ति मैंने पहले भी कभी अनुभव की है।’ ज्ञातधर्मकथांग सूत्र श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान। अगला मेघ कुमार का भव। 
  3. मेघकुमार - भगवान महावीर द्वारा याद कराने से। ज्ञातधर्मकथांग सूत्र श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान। अगला भव विजय नामक अनुत्तर महाविमान में। 
  4. जितशत्रु प्रभृति छह राजा - अरहंत मल्ली द्वारा याद कराने से। ज्ञातधर्मकथांग सूत्र श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली। मोक्ष पाया। 
  5. नन्द मण्डूक (नन्द मणिकार का अगला भव) - ‘जान पड़ता है कि मैंने इस प्रकार के शब्द पहले भी सूने हैं।’ ज्ञातधर्मकथांग सूत्र श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१३  मंडुक।  सौधर्म कल्प में, दर्दुरावतंसक नामक विमान। 
  6. तेतलिपुत्र - पोट्टिल देव के चेताने पर।  ज्ञातधर्मकथांग सूत्र श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र। मोक्ष पाया।
  7. मृगापुत्र - साधु को देख कर - “मैं मानता हूँ कि ऐसा रूप मैंने इसके पूर्व भी कहीं देखा है”। उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन-१९ मृगापुत्रीय। ? मोक्ष पाया। 
  8. जो ये संज्ञी, पर्याप्त, तिर्यग्‌योनिक जीव होते हैं, जैसे – जलचर, स्थलचर तथा खेचर, उनमें से कइयों के प्रशस्त, शुभ परिणाम तथा विशुद्ध होती हुई लेश्याओं के कारण ज्ञानावरणीय एवं वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए अपनी संज्ञित्व – अवस्था से पूर्ववर्ती भवों की स्मृति हो जाती है। वे स्वयं पाँच अणुव्रत स्वीकार करते हैं। अनेकविध शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान, पोषधोपवास आदि द्वारा आत्म भावित होते हुए बहुत वर्षों तक अपने आयुष्य का पालन करते हैं। फिर वे अपने पाप – स्थानों की आलोचना कर, उनसे प्रतिक्रान्त हो, समाधि – अवस्था प्राप्त कर, मृत्यु – काल आने पर देह – त्याग कर उत्कृष्ट सहस्रार – कल्प – देवलोक में देव रूप में उत्पन्न होते हैं। अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है। उनकी वहाँ स्थिति अठारह सागरोपम – प्रमाण होती है। वे परलोक के आराधक होते हैं। औपपातिक सूत्र उपपात वर्णन।