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प्रमत्त और अप्रमत्त संयत की स्थिथि

प्रचलित स्तिथि इन दोनों गुणस्थान की उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त मानी जाती है। एक झूले (swing) का उदाहरण देके कहा जाता है कि साधु एक गुणस्थान में ज़्यादा देर नहीं रहता और इन दोनों में लगातार झूले जैसे समय बिताते है।

इस मान्यता का आधार और प्रमाण और कुछ विपरीत प्रमाण और तर्क मिलते है।

आगम से - 

हे भगवन्‌ ! प्रमत्त – संयम में प्रवर्तमान प्रमत्तसंयत का सब मिलाकर प्रमत्तसंयमकाल कितना होता है ?
मण्डितपुत्र ! एक जीव की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि– होता है। अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होता है। 

हे भगवन्‌ ! अप्रमत्तसंयम में प्रवर्तमान अप्रमत्तसंयम का सब मिलाकर अप्रमत्तसंयमकाल कितना होता है ?
मण्डितपुत्र ! एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि – होता है। अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होता है।
भगवती सूत्र शतक ३ उद्देशक ३ 

अन्य आगम संदर्भ
  • मनःपर्यव ज्ञानी (सिर्फ़ अप्रमत्त संयत) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि मनःपर्यवज्ञानीपर्याय में रहता है। प्रज्ञापना सूत्र पद-१८ कायस्थिति
  • बकुशत्व, प्रति सेवना और कषायकुशील ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटिवर्ष तक रहता है। भगवती सूत्र शतक-२५ उद्देशक-६ निर्ग्रन्थ
  • हे भगवन्‌ ! धर्मदेवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि की है। भगवती सूत्र शतक-१२ उद्देशक-९ देव
  • धर्मदेव धर्मदेवरूप में कितने काल तक रहता है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्व कोटि वर्ष है। भगवती सूत्र शतक-१२ उद्देशक-९ देव
  • भगवती में बकुश और प्रतिसेवना कुशील के सिर्फ़ ३ लेश्या (तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या) बतायी है। भगवती सूत्र शतक-२५ उद्देशक-६ निर्ग्रन्थ
  • कृष्ण लेश्या वाला जीव दो, तीन या चार लेश्या में होता है। प्रज्ञापना सूत्र पद-१७ लेश्या। क्योंकि कृष्ण नील कापोत लेश्या छट्टे गुणस्थान तक ही है, तो मनःपर्यव ज्ञानी छट्टे गुणस्थान में भी आ सकता है। 
  • इनके अतिरिक्त आशीविष सर्प के समान उग्र तेज से सम्पन्न महापुरुषों ने, वस्तु तत्त्व का निश्चय और पुरुषार्थ – दोनों में पूर्ण कार्य करने वाली बुद्धि से सम्पन्न प्रज्ञापुरुषों ने, नित्य स्वाध्याय और चित्तवृत्तिनिरोध रूप ध्यान करने वाले तथा धर्मध्यान में निरन्तर चिन्ता को लगाये रखने वाले पुरुषों ने, पाँच महाव्रतस्वरूप चारित्र से युक्त तथा पाँच समितियों से सम्पन्न, पापों का शमन करने वाले, षट्‌ जीवनिकायरूप जगत के वत्सल, निरन्तर अप्रमादी रहकर विचरण करने वाले महात्माओं ने तथा अन्य विवेकविभूषित सत्पुरुषों ने अहिंसा भगवती की आराधना की है। प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ अहिंसा
ग्रंथ संदर्भ और आधार

गाथार्थ - मुनि एक समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त प्रमत्त अथवा अप्रमत्त भाव को सेवन करते हैं और परस्पर एक दूसरे गुणस्थान को देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त सेवन करते हुए रहते हैं । पंच संग्रह भाग २, गाथा ४४ 

विशेषार्थ - गाथा में छठे और सातवें गुणस्थान का अपेक्षा से काल बतलाया है कि मुनिजन प्रमत्तभाव में अथवा अप्रमत्तभाव में एक समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त रहते हैं। तत्पश्चात् यदि प्रमत्त हों तो अवश्य अप्रमत्त गुणस्थान में जाते हैं और अप्रमत्त हों तो प्रमत्त में आते हैं। जिससे प्रमत्त और अप्रमत्त संयत गुणस्थानों में से प्रत्येक का जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त काल है

प्रमत्तमुनि अथवा अप्रमत्तमुनि जघन्य से उस उस अवस्था में एक समय रहते हैं, तत्पश्चात् मरण संभव होने से अविरतदशा को प्राप्त हो जाते हैं। अतएव यहाँ जघन्य से एक समय काल मरने वाले की अपेक्षा घटित होता है और यदि मरण को प्राप्त न हों तो अन्तर्मुहूर्त काल होता है। इसी अपेक्षा उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त काल बतलाया है।

प्रश्न - यह कैसे जाना जा सकता है कि अन्तर्मुहूर्त के बाद प्रमत्त गुणस्थान से अप्रमत्त गुणस्थान में और अप्रमत्त गुणस्थान से प्रमत्त गुणथान में जाते हैं ? देशविरति आदि की तरह दीर्घकाल पर्यन्त ये दोनों गुणस्थान क्यों नहीं होते हैं ?

उत्तर—संक्लेशस्थानों में वर्तमान मुनि प्रमत्त और विशुद्धि-थानों में वर्तमान मुनि अप्रमत्त होते हैं और ये संक्लेश एवं विशुद्धि के स्थान प्रत्येक असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं । यथार्थ रूप से मुनिदशा में वर्तमान मुनि जब तक उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी पर आरोहण न करें तब तक जीवस्वभाव से अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त संक्लेश स्थानों में रहकर विशुद्धिस्थानों में आते हैं । तथास्वभाव से दीर्घकाल पर्यन्त न तो संक्लेशस्थानों में रहते हैं और न विशुद्धिस्थानों में ही रह सकते हैं। जिससे प्रमत्त और अप्रमत्त भाव में देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त परावर्तन करते रहते हैं। इसी कारण प्रमत्तभाव अथवा अप्रमत्तभाव प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त होते हैं, इससे अधिक काल तक नहीं हो सकते हैं। 

शतकबृहच्चूर्णि में भी यही बताया है - 'इत्थ संकिलस्सइ विसुज्झइ वा विरओ अंतमुहुत्त जाव कालं न परओ। ते संकिलिस्संतो संकिले सठाणेसु अंतोमूहुत्त कालं जाव पमत्तसंजओ होइ, विज्झतो विसोहि ठाणेसु अंतोमुहुत्त कालं जाव अपमत्तसंजओ होइ।'

इस प्रकार संक्लिष्ट परिणाम वाला या विशुद्ध परिणाम वाला अंतर्मुहूर्त कालपर्यन्त ही हो सकता है, अधिक काल नहीं होता है। जिससे संक्लिष्ट परिणाम वाला प्रमत्त मुनि संक्लेशस्थानों में अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त और विशुद्ध परिणाम वाला अप्रमत्त मुनि विशुद्धिस्थानों में अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त रहता है।

प्रश्न - इस प्रकार से प्रमत्त और अप्रमत्तपने में कितने काल तक परावर्तन करते हैं?
उत्तर - प्रमत्त और अप्रमत्तपने में देशोनपूर्वकोटि पर्यन्त परावर्तन करते हैं। प्रमत्त में अन्तर्मुहूर्त रहकर अप्रमत्त में और अप्रमत्त में अन्तर्मुहूर्त रहकर प्रमत्त में, इस तरह क्रमशः देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त होता रहता है - 'देसूण पुव्वकोडि अन्नोन्नं चिट्ठहि भयंता।'

यहाँ गर्भ के कुछ अधिक नौ मास और प्रसव होने के बाद आठ वर्ष पर्यन्त जीव स्वभाव में विरति परिणाम वाला न होने से उतना काल पूर्वकोटि आयु में से कम कर देने के कारण यहाँ देशोन — एक देश कम पूर्वकोटि काल ग्रहण किया है।

गणित

अगर एक करोड़ पूर्व वर्ष में से प्रति दिवस

  • एक मुहूर्त निकाले तो - 197952000000000000000000000000 (1.97952×1029) वर्ष या लगभग ३,३३,३३३ पूर्व वर्ष कम होते है। 
  • एक मिनट निकाले तो  - लगभग ७००० पूर्व कम। 
  • एक सेकंड निकाले तो  - लगभग ११५ पूर्व कम।
  • एक उच्छ्वास (जिसमें संखेय आवलिका है) निकाले तो - लगभग 52,465,412,138,881,515,000,000,000 (5.24654×1025) वर्ष कम या लगभग ८८ पूर्व कम। 
  • एक उच्छ्वास में ४४४४ अवालिका पकड़ें (17.367 क्षुल्लक भव *256 आवलिका एक भव) और एक आवलिका प्रति दिवस निकाले तो - 11,805,895,589,558,959,000,000 (1.18059×1022) वर्ष कम या लगभग २० पूर्व कम। 

गुरु भगवंत ने फ़रमाया कि एक आवलिका में असंखात भाग जितना समय झूले में दूसरे गुणस्थान में व्यतीत करते है। कल्पना से अगर इस एक आवलिका का असंख्यात्वा भाग जितना समय निकाले तो शायद देशोन में बैट पाएगा। इसकी गणना हम नहीं कर सकते है। 

प्रमाद किसे कहते है?

पहले इसे स्पष्ट रूप से समझना होगा। आगम से कुछ संदर्भ जिससे यह समझा जा सकता है - 

  • प्रमाद छः प्रकार का है, यथा – १. मद्य, २. निद्रा, ३. विषय, ४. कषाय, ५. द्यूत, ६. प्रतिलेखना में प्रमाद।

    1 

  • प्रमाद पूर्वक की गई प्रतिलेखना छः प्रकार की है, यथा – आरभटा – उतावल से प्रतिलेखना करना, संमर्दा – मर्दन करके प्रतिलेखना करना, मोसली – वस्त्र के ऊपर के नीचे के या तिर्यक्‌ भाग को प्रतिलेखन करते हुए परस्पर छुहाना। प्रस्फोटना – वस्त्र की रज को भड़काना। विक्षिप्ता – प्रतिलेखित वस्त्रों को अप्रतिलेखित वस्त्रों पर रखना। वेदिका – प्रतिलेखना करते समय विधिवत्‌ न बैठना सूत्र

  • अप्रमाद प्रतिलेखना छह प्रकार की है, यथा – अनर्तिता – शरीर या वस्त्र को न नचाते हुए प्रतिलेखना करना। अवलिता – वस्त्र या शरीर को झुकाये बिना प्रतिलेखना करना। अनानुबंधि – उतावल या झटकाये बिना प्रतिलेखना करना। अमोसली – वस्त्र को मसले बिना प्रतिलेखना करना। छः पुरिमा और नव खोटका। 12

  • अप्रमाद – अपने दैवसिक और रात्रिक आवश्यकों के पालन आदि में प्रमाद न करे। 23
  • आर्यो ! यों श्रमण भगवान महावीर गौतमादि श्रमणनिर्ग्रन्थों को सम्बोधित करके इस प्रकार बोले – हे श्रमणों ! प्राणी दुःख से डरने वाले हैं। हे भगवन्‌ ! यह दुःख किसके द्वारा दिया गया है ? (भगवान बोले) जीव ने प्रमादके द्वारा दुःख उत्पन्न किया है। हे भगवन्‌ ! यह दुःख कैसे नष्ट होता है ? अप्रमाद से दुःख का क्षय होता है। 34
  • पाँच आश्रवद्वार कहे गए हैं, यथा – मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, अशुभयोग। पाँच संवर द्वार कहे गए हैं – सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय, शुभयोग। 45  

  • आठ आवश्यक कार्यों के लिए सम्यक्‌ प्रकार के उद्यम, प्रयत्न और पराक्रम करना चाहिए किन्तु इनके लिए प्रमाद नहीं करना चाहिए, यथा – अश्रुत धर्म को सम्यक्‌ प्रकार से सूनने के लिए तत्पर रहना चाहिए। श्रुत धर्म को ग्रहण करने और धारण करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। संयम स्वीकार करने के पश्चात्‌ पापकर्म न करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। तपश्चर्या से पुराने पाप कर्मों की निर्जरा करने के लिए तथा आत्मशुद्धि के लिए तत्पर रहना चाहिए। निराश्रित – परिजन को आश्रय देने के लिए तत्पर रहना चाहिए। शैक्ष (नवदीक्षित) को आचार और गोचरी विषयक मर्यादा सिखाने के लिए तत्पर रहना चाहिए। ग्लान की ग्लानि रहित सेवा करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। साधर्मिकों में कलह उत्पन्न होने पर राग – द्वेष रहित होकर पक्ष ग्रहण किये बिना मध्यस्थ भाव से साधर्मिकों के बोलचाल, कलह और तू – तू मैं – मैं को शान्त करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। 6 
  • प्रमाद प्रतिसेवना – हास्य विकथा आदि प्रमाद से अनाभोग प्रतिसेवना। 7 
  • अनाश्रवी/मुनि कठोर शब्दों को सूनकर संयम में परिव्रजन करे। भिक्षु निद्रा एवं प्रमाद न करे। वह किसी तरह विचिकित्सा से पार हो जाए। 8 
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    1 स्थानांग सूत्र स्थान ६
    2 स्थानांग सूत्र स्थान-६
    23 बत्रीस योग संग्रह, समवयांग सूत्र, समवाय-३२
    34 स्थानांग सूत्र स्थान-३ उद्देशक-२
    45 स्थानांग सूत्र स्थान-५ उद्देशक-२
    6 स्थानांग सूत्र स्थान-८
    7 स्थानांग सूत्र स्थान-१०
    8 सूत्रकृतांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१४ ग्रंथ