अव्यवहार राशि
इस संबध में अनेक प्रकार की धारनाये प्रचलित है। आगम मे स्पष्ट रूप से कही पर भी व्यवहार अव्यव्हार राशि का उल्लेख नहीं है। कोई कोई परम्परा व्यवहार/अव्यव्हार राशि को ही नहीं मानती है।
मानने के कारण या आधार
- वि
शेषणशेषनवतीवृत्तिकिताब में उल्लेख। - गणित बिगड़ जाता है - परंपरागत मान्यता में भाव मिलते है की अगर सभी भव्य जीव मोक्ष चले जाएँगे तो लोक ख़ाली हो जाएगा इसलिए ऐसा अलग जीव का समूह है ऐसा मानते है। इस गणित को बिटाने की आपेक्षा से इसे मानते है।
कुछ स्पष्ट आगम प्रमाण या आधार है जिससे इस सिद्धांत को मानने से बाधा हो सकती है, एकदम विपरीत है। पर इसका समाधान यह दिया जाता है की ये सारे आगम सिद्धांत उन जीवों के हिसाब से समझना जिनको व्यवहार में आके अनंत काल बीत चुका है। ऐसा क्यूँ कहा जाता है इसका भी कोई ठोस आधार नहीं मिलता।
कई प्रश्न खड़े होते है -
- क्या व्यवहार और अव्यवाहर राशि से जीव आ-जा सकते हैं? या सिर्फ़ बाहर आ सकते है? two-way या one-way?
- क्या यह जीव के ५६३ भेद में से ही है या अलग समूह, अलग गणना? अगर ५६३ में है, तो इनको ५६३ के रूल्स भी follow करने पड़ेंगे without special conditions?
- उनमें नये जन्म होता है? वृद्धि होती है? ख़ाली नहीं होता?
आगम से बाधित प्रमाण
1. इस लोक में जितने त्रस और स्थावर प्राणी हैं, वे अवश्य एक दूसरे पर्याय में जाते हैं, अतएव कभी त्रस स्थावर हो सकते हैं और स्थावर त्रस हो सकते हैं। - सुयगडाँग सूत्र शतक १ उद्देशक ४
2. भगवन् ! क्या यह जीव, इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में पृथ्वी – कायिकरूप से यावत् वनस्पतिकायिक रूप से, नरक रूप में, पहले उत्पन्न हुआ है ? हाँ, गौतम ! अनेक बार अथवा अनन्त बार (उत्पन्न हो चूका है)। भगवन् ! क्या सभी जीव, इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में पृथ्वी – कायिकरूप में यावत् वनस्पतिकायिकरूप में, नरकपन और नैरयिकपन, पहले उत्पन्न हो चूके हैं ? (हाँ, गौतम !) उसी प्रकार अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हुए हैं। भगवन् ! यह जीव शर्कराप्रभापृथ्वी के पच्चीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में, पृथ्वीकायिक रूप में यावत् वनस्पतिकायिक रूप में, यावत् पहले उत्पन्न हो चूका है ? गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी – के समान दो आलापक कहने चाहिए। इसी प्रकार यावत् धूमप्रभा – पृथ्वी तक जानना। भगवन् ! क्या यह जीव तमःप्रभापृथ्वी के पाँच कम एक लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में पूर्ववत् उत्पन्न हो चूका है ? (हाँ, गौतम !) पूर्ववत् जानना। भगवन् ! यह जीव अधःसप्तमपृथ्वी के पाँच अनुत्तर और महातिमहान् महानरकावासों में क्या पूर्ववत् उत्पन्न हो चूके हैं ? (हाँ, गौतम !) शेष सर्व कथन पूर्ववत् जानना। भगवन् ! क्या यह जीव, असुरकुमारों के चौंसठ लाख असुरकुमारवासों में से प्रत्येक असुरकुमारावास में पृथ्वीकायिकरूप में यावत् वनस्पतिकायिकरूप में, देवरूप में या देवीरूप में अथवा आसन, शयन, भांड, पात्र आदि उपकरणरूप में पहले उत्पन्न हो चूका है ? हाँ, गौतम ! अनेक बार या अनन्त बार (उत्पन्न हो चूका है)। भगवन् ! क्या सभी जीव (पूर्वोक्तरूप में उत्पन्न हो चूके हैं ?) हाँ, गौतम ! इसी प्रकार है। इसी प्रकार स्तनित – कुमारों तक कहना चाहिए। किन्तु उनके आवासों की संख्या में अन्तर है। भन्ते ! क्या यह जीव असंख्यात लाख पृथ्वीकायिक – आवासों में से प्रत्येक पृथ्वीकायिक – आवासमें पृथ्वी – कायिकरूपमें यावत् वनस्पतिकायिकरूपमें पहले उत्पन्न हो चूका है ? हाँ, गौतम ! अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हुआ है। इसी प्रकार सर्वजीवोंके (विषयमें कहना )। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिकोंके आवासों जानना। भगवन् ! क्या यह जीव असंख्यात लाख द्वीन्द्रिय – आवासों में से प्रत्येक द्वीन्द्रियावास में पृथ्वीकायिकरूप में यावत् वनस्पतिकायिकरूप में और द्वीन्द्रियरूप में पहले उत्पन्न हो चूका है ? हाँ, गौतम ! यावत् अनेक बार अथवा अनन्त बार (उत्पन्न हो चूका है)। इसी प्रकार सभी जीवों के विषय में (कहना चाहिए)। इसी प्रकार यावत् मनुष्यों तक विशेषता यह है कि त्रीन्द्रियों में यावत् वनस्पतिकायिकरूप में, यावत् त्रीन्द्रियरूप में, चनुरिन्द्रियों में यावत् चतुरिन्द्रियरूप में, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में यावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चरूप में तथा मनुष्यों में यावत् मनुष्य – रूप में उत्पत्ति जानना। शेष समस्त कथन द्वीन्द्रियों के समान जानना। असुरकुमारों (की उत्पत्ति) के समान वाणव्यन्तर; ज्योतिष्क तथा सौधर्म एवं ईशान देवलोक तक कहना। भगवन् ! क्या यह जीव सनत्कुमार देवलोक के बारह लाख विमानावासों में से प्रत्येक विमानावास में पृथ्वीकायिक रूप में यावत् पहले उत्पन्न हो चूका है ? (हाँ, गौतम !) सब कथन असुरकुमारों के समान, यावत् अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चूके हैं; यहाँ तक कहना। किन्तु वहाँ से देवीरूप में उत्पन्न नहीं हुए। इसी प्रकार सर्व जीवों के विषय में कहना। इसी प्रकार यावत् आनत और प्राणत तथा आरण और अच्युत तक जानना। भगवन् ! क्या यह जीव तीन सौ अठारह ग्रैवेयक विमानावासों में से प्रत्येक विमानावास में पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् उत्पन्न हो चूका है ? हाँ, गौतम ! उत्पन्न हो चूका है। भगवन् ! क्या यह जीव पाँच अनुत्तरविमानों में से, यावत् उत्पन्न हो चूका है? हाँ, किन्तु वहाँ (अनन्त बार) देवरूप में, या देवीरूप में उत्पन्न नहीं हुआ। इसी प्रकार सभी जीवों के विषय में जानना भगवन् ! यह जीव, क्या सभी जीवों के माता – रूप में, पिता – रूप में, भाई के रूप में, भगिनी के रूप में, पत्नी के रूप में, पुत्र के रूप में, पुत्री के रूप में, तथा पुत्रवधू के रूप में पहले उत्पन्न हो चूका है ? हाँ, गौतम ! अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चूका है। भगवन् ! सभी जीव क्या इस जीव के माता के रूप में यावत् पुत्रवधू के रूप में पहले उत्पन्न हुए हैं ? हाँ, गौतम ! सब जीव, इस जीव के माता आदि के रूप में यावत् अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हुए हैं। भगवन् ! यह जीव क्या सब जीवों के शत्रु रूप में, वैरी रूप में, घातक रूप में, वधक रूप में, प्रत्यनीक रूप में, शत्रु – सहायक रूप में पहले उत्पन्न हुआ है ? हाँ, गौतम ! अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चूका है। भगवन् ! क्या सभी जीव (इस जीवके पूर्वोक्त शत्रुआदि रूपोंमें) पहले उत्पन्न हो चूके हैं ? हाँ, गौतम ! पूर्ववत् समझना भगवन् ! यह जीव, क्या सब जीवों के राजा के रूप में, युवराज के रूप में, यावत् सार्थवाह के रूप में पहले उत्पन्न हो चूका है ? गौतम ! अनेक बार या अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चूका है। इस जीव के राजा आदि के रूप में सभी जीवों की उत्पत्ति भी पूर्ववत्। भगवन् ! क्या यह जीव, सभी जीवों के दास रूप में, प्रेष्य के रूप में, भृतक रूप में, भागीदार के रूप में, भोगपुरुष के रूप में, शिष्य के रूप में और द्वेष्य के रूप में पहले उत्पन्न हो चूका है ? हाँ, गौतम ! यावत् अनेक बार या अनन्त बार (पहले उत्पन्न हो चूका है)। इसी प्रकार सभी जीव, यावत् अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चूके हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है। भवभ्रमण - स्थान, दण्डकपने में उत्पन्न और संबंध - भगवती सूत्र शतक १२ उद्देशक ७
3. भगवन् ! अतीतकाल में आदिष्ट – नारक आदि विशेषण – विशिष्ट जीव का संसार – संस्थानकाल कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! संसार – संस्थान – काल चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है – नैरयिकसंसार – संस्थानकाल, तिर्यंचसंसार – संस्थानकाल, मनुष्यसंसार – संस्थानकाल और देवसंसार – संस्थानकाल। भगवन् ! नैरयिकसंसार – संस्थानकाल कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! तीन प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार – शून्यकाल, अशून्यकाल और मिश्रकाल। भगवन् ! तिर्यंचसंसार – संस्थानकाल कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार – अशून्यकाल और मिश्रकाल। मनुष्यों और देवों के संसारसंस्थानकाल का कथन नारकों के समान समझना। भगवन् ! नारकों के संसारसंस्थानकाल के जो तीन भेद हैं – शून्यकाल, अशून्यकाल और मिश्रकाल, इनमें से कौन किससे कम, बहुत, तुल्य, विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे कम अशून्यकाल है, उससे मिश्रकाल अनन्त गुणा है और उसकी अपेक्षा भी शून्यकाल अनन्तगुणा है। तिर्यंचसंसार – संस्थानकाल के दो भेदों में से सबसे कम अशून्यकाल है और उसकी अपेक्षा मिश्रकाल अनन्तगुणा है। मनुष्यों और देवों के संसारसंस्थानकाल का अल्प – बहुत्व नारकों के संसारसंस्थानकाल की न्यूनाधिकता के समान ही समझना चाहिए। भगवन् ! नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य और देव, इन चारों के संसारसंस्थानकालों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे थोड़ा मनुष्यसंसार – संस्थानकाल है, उससे नैरयिक संसारसंस्थानकाल असंख्यातगुणा, उससे देव संसारसंस्थानकाल असंख्यातगुणा है और उससे तिर्यंचसंसारसंस्थानकाल अनन्तगुणा है। संसार संचिता काल - भगवती सूत्र शतक १ उद्देशक २
4. हर जीव अनंत बार नव ग्रैवेक - पन्नवना सूत्र इंद्रिय पद 15
5. भगवन् ! इन परमाणु – पुद्गलों के संघात और भेद के सम्बन्ध से होने वाले अनन्तानन्त पुद्गल – परिवर्त्त जानने योग्य हैं, (क्या) इसीलिए इनका कथन किया है ? हाँ, गौतम ! ये जानने योग्य हैं, इसीलिए ये कहे गए हैं। भगवन् ! पुद्गल – परिवर्त्त कितने प्रकार का है ? गौतम ! सात प्रकार का, यथा – औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त, वैक्रिय – पुद्गलपरिवर्त्त, तैजस – पुद्गलपरिवर्त्त, कार्मण – पुद्गलपरिवर्त्त, मनः – पुद्गलपरिवर्त्त, वचन – पुद्गलपरिवर्त्त और आनप्राण – पुद्गलपरिवर्त्त। भगवन् ! नैरयिकों के पुद्गलपरिवर्त्त कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! सात प्रकार के, यथा – औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त, यावत् आनप्राण – पुद्गलपरिवर्त्त। इसी प्रकार वैमानिक तक कहना। भगवन् ! एक – एक जीव के अतीत औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त कितने हुए हैं ? गौतम ! अनन्त हुए हैं। भविष्यकालीन पुद्गलपरिवर्त्त कितने होंगे ? गौतम ! किसी के होंगे और किसी के नहीं होंगे। जिसके होंगे, उसके जघन्य एक, दो, तीन होंगे तथा उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त होंगे। इसी प्रकार यावत् – आन – प्राण तक सात आलापक कहना। भगवन् ! प्रत्येक नैरयिक के अतीत औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त कितने हैं ? गौतम ! (वे) अनन्त हैं। भगवन् भविष्यकालीन कितने होंगे ? गौतम ! किसी के होंगे, किसी के नहीं होंगे। जिसके होंगे, उसके जघन्य एक, दो (या) तीन होंगे और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त होंगे। प्रत्येक असुरकुमार के अतीतकालिक कितने औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त हुए हैं ? गौतम ! पूर्ववत् ! इसी प्रकार यावत् वैमानिक (के अतीत पुद्गलपरिवर्त्त) तक (कहना)। भगवन् ! प्रत्येक नारक के भूतकालीन वैक्रिय – पुद्गलपरिवर्त्त कितने हुए हैं ? गौतम ! अनन्त हुए हैं। औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त के समान वैक्रिय – पुद्गलपरिवर्त्त के विषय में कहना। इसी प्रकार यावत् प्रत्येक वैमानिक के आनप्राण – पुद्गलपरिवर्त्त तक कहना। इस प्रकार वैमानिक तक प्रत्येक जीव की अपेक्षा से ये सात दण्डक होते हैं भगवन् ! (समुच्चय) नैरयिकों के अतीतकालीन औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त कितने हुए हैं ? गौतम ! अनन्त हुए हैं। भगवन् ! (समुच्चय) नैरयिक जीवों के भविष्यत् कालीन पुद्गलपरिवर्त्त कितने होंगे ? गौतम ! अनन्त होंगे। इसी प्रकार वैमानिकों तक कथन करना। इसी प्रकार वैक्रिय – पुद्गलपरिवर्त्त के विषय में कहना। इसी प्रकार यावत् आन – प्राण – पुद्गलपरिवर्त्त तक। इस प्रकार पृथक् – पृथक् सातों पुद्गलपरिवर्त्तों के विषय में सात आलापक समुच्चय रूप से चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के विषय कहना। भगवन् ! प्रत्येक नैरयिक जीव के, नैरयिक अवस्था में अतीत औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त कितने हुए हैं ? गौतम एक भी नहीं हुआ। भगवन् ! भविष्यकालीन कितने होंगे ? गौतम ! एक भी नहीं। भगवन् ! प्रत्येक नैरयिक जीव के, असुरकुमाररूप में अतीत औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त कितने हुए ? गौतम ! इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक कहना भगवन् ! प्रत्येक नैरयिक जीव के पृथ्वीकाय के रूप में अतीत में औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त कितने हुए ? गौतम ! वे अनन्त हुए हैं। भगवन् ! भविष्य में कितने होंगे ? किसी के होंगे, और किसी के नहीं होंगे। जिसके होंगे उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होंगे। इसी प्रकार यावत् मनुष्य भव तक कहना। असुरकुमारपन के समान वाणव्यन्तरपन, ज्योतिष्कपन तथा वैमानिकपन में कहना। भगवन् ! प्रत्येक असुरकुमार के नैरयिक भव में अतीत औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त कितने हुए हैं ? गौतम ! (प्रत्येक) नैरयिक जीव के समान असुरकुमार के विषय में यावत् वैमानिक भव – पर्यन्त कहना। इसी प्रकार स्तनित – कुमार तक कहना। इसी प्रकार प्रत्येक पृथ्वीकाय के विषय में भी वैमानिक पर्यन्त सबका एक आलापक कहना। भगवन् ! प्रत्यके नैरयिक जीव के नैरयिक भव में अतीतकालीन वैक्रिय – पुद्गलपरिवर्त्त कितने हुए हैं ? गौतम अनन्त हुए हैं। भगवन् ! भविष्यकालीन कितने होंगे ? गौतम ! किसी के होंगे और किसी के नहीं होंगे। एक से लेकर उत्तरोत्तर उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथव यावत् अनन्त होंगे। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक कहना। (भगवन् ! प्रत्येक नैरयिक जीव के) पृथ्वीकायिक भव में (अतीत में वैक्रिय – पुद्गलपरिवर्त्त) कितने हुए ? (गौतम !) एक भी नहीं हुआ। (भगवन् !) भविष्यत् काल में (ये) कितने होंगे ? गौतम ! एक भी नहीं होगा। इस प्रकार जहाँ वैक्रियशरीर है, वहाँ एक से लेकर उत्तरोत्तर (अनन्त तक), (वैक्रिय – पुद्गलपरिवर्त्त जानना चाहिए।) जहाँ वैक्रियशरीर नहीं है, वहाँ (प्रत्येक नैरयिक के) पृथ्वीकायभव में (वैक्रिय – पुद्गलपरिवर्त्त के विषय में) कहा, उसी प्रकार यावत् (प्रत्येक) वैमानिक जीव के वैमानिक भव पर्यन्त कहना चाहिए। तैजस – पुद्गलपरिवर्त्त और कार्मण – पुद्गलपरिवर्त्त सर्वत्र एक से लेकर उत्तरोत्तर अनन्त तक कहने चाहिए। मनः – पुद्गलपरिवर्त्त समस्त पंचेन्द्रिय जीवों में एक से लेकर उत्तरोत्तर यावत् अनन्त तक कहने चाहिए। किन्तु विकलेन्द्रियों में मनः – पुद्गलपरिवर्त्त नहीं होता। इसी प्रकार वचन – पुद्गलपरिवर्त्त के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए। विशेष इतना ही है कि वह (वचन – पुद्गलपरिवर्त्त) एकेन्द्रिय जीवों में नहीं होता। आन – प्राण – पुद्गलपरिवर्त्त भी सर्वत्र एक से लेकर अनन्त तक जानना चाहिए। यावत् वैमानिक के वैमानिक भव तक कहना। भगवन् ! अनेक नैरयिक जीवों के नैरयिक भव में अतीतकालिक औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त कितने हुए हैं? गौतम ! एक भी नहीं हुआ। भगवन् ! भविष्य में कितने होंगे ? गौतम ! भविष्य में एक भी नहीं होगा। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार भव तक। भगवन् ! अनेक नैरयिक जीवों के पृथ्वीकायिकपन में (अतीतकालिक औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त) कितने हुए हैं ? गौतम ! अनन्त हुए हैं। भगवन् ! भविष्य में (औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त) कितने होंगे ? गौतम ! अनन्त होंगे। अनेक नैरयिकों के पृथ्वीकायिकपन में अतीत – अनागत औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त के समान मनुष्यभव तक कहना। अनेक नैरयिकों के नैरयिकभव में अतीत – अनागत औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त के समान उनके वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव भव में भी कहना। उसी प्रकार अनेक वैमानिकों के वैमानिक भव तक कहना। जिस प्रकार औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त के विषय में कहा, उसी प्रकार शेष सातों पुद्गलपरिवर्त्तों का कथन कहना चाहिए। जहाँ जो पुद्गलपरिवर्त्त हो, वहाँ उसके अतीत और भविष्यकालीन पुद्गलपरिवर्त्त अनन्त – अनन्त कहने चाहिए। जहाँ नहीं हो, वहाँ अतीत और अनागत दोनों नहीं कहने चाहिए। यावत् – ‘भगवन् ! अनेक वैमानिकों के वैमानिक भव में कितने आन – प्राण – पुद्गलपरिवर्त्त हुए ?’ (उत्तर – ) गौतम ! अनन्त हुए हैं। ‘भगवन्! आगे कितने होंगे ?’ ‘गौतम ! अनन्त होंगे।’ – यहाँ तक कहना चाहिए। पुद्गल परिवर्तन काल - भगवती सूत्र शतक १२ उद्देशक ४
6. ‘भगवन् !’ यों कहकर भगवान गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी से यावत् इस प्रकार पूछा – भगवन् ! क्या जीव बढ़ते हैं, घटते हैं या अवस्थित रहते हैं ? गौतम ! जीव न बढ़ते हैं, न घटते हैं, पर अवस्थित रहते हैं भगवन् ! क्या नैरयिक बढ़ते हैं, अथवा अवस्थित रहते हैं ? गौतम ! नैरयिक बढ़ते भी हैं, घटते भी हैं और अवस्थित भी रहते हैं। जिस प्रकार नैरयिकों के विषय में कहा, इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। भगवन् ! सिद्धों के विषय में मेरी पृच्छा है (कि वे बढ़ते हैं, घटते हैं या अवस्थित रहते हैं ?) गौतम ! सिद्ध बढ़ते हैं, घटते नहीं, वे अवस्थित भी रहते हैं। भगवन् ! जीव कितने काल तक अवस्थित रहते हैं ? गौतम ! सब काल में। भगवन् ! नैरयिक कितने काल तक बढ़ते हैं ? गौतम ! नैरयिक जीव जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः आवलिका के असंख्यात भाग तक बढ़ते हैं। जिस प्रकार बढ़ने का काल कहा है, उसी प्रकार घटने का काल भी कहना चाहिए। भगवन् ! नैरयिक कितने काल तक अवस्थित रहते हैं ? गौतम ! (नैरयिक जीव) जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः चौबीस मुहूर्त्त तक (अवस्थित रहते हैं) इसी प्रकार सातों नरक – पृथ्वीयों के जीव बढ़ते हैं, घटते हैं, किन्तु अवस्थित रहने के काल में इस प्रकार भिन्नता है। यथा – रत्नप्रभापृथ्वी में ४८ मुहूर्त्त का, शर्कराप्रभापृथ्वी में चौबीस अहोरात्रि का, वालुकाप्रभापृथ्वी में एक मास का, पंकप्रभा में दो मास का, धूमप्रभा में चार मास का, तमःप्रभा में आठ मास का और तमस्तमःप्रभा में बारह मास का अवस्थान – काल है। जिस प्रकार नैरयिक जीवों की वृद्धि – हानि के विषय में कहा है, उसी प्रकार असुरकुमार देवों की वृद्धि – हानि के सम्बन्ध में समझना चाहिए। असुरकुमार देव जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट ४८ मुहूर्त्त तक अवस्थित रहते हैं। इसी प्रकार दस ही प्रकार के भवनपतिदेवों की वृद्धि, हानि और अवस्थिति का कथन करना चाहिए। एकेन्द्रिय जीव बढ़ते भी हैं, घटते भी हैं और अवस्थित भी रहते हैं। इन तीनों का काल जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः आवलिका का असंख्यातवा भाग (समझना चाहिए) द्वीन्द्रिय जीव भी इसी प्रकार बढ़ते – घटते हैं। इनके अवस्थान – काल में भिन्नता इस प्रकार है – ये जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः दो अन्तर्मुहूर्त्त तक अवस्थित रहते हैं। द्वीन्द्रिय की तरह त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों तक (का वृद्धि – हानि – अवस्थिति – काल) कहना। शेष सब जीव, बढ़ते – घटते हैं, यह पहले की तरह ही कहना चाहिए। किन्तु उनके अवस्थान – काल में इस प्रकार भिन्नता है, तथा – सम्मूर्च्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों का दो अन्तर्मुहूर्त्त का; गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यग्यो – निकों का चौबीस मुहूर्त्त का, सम्मूर्च्छिम मनुष्यों का ४८ मुहूर्त्त का, गर्भज मनुष्यों का चौबीस मुहूर्त्त का, वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और सौधर्म, ईशान देवों का ४८ मुहूर्त्त का, सनत्कुमार देव का अठारह अहोरात्रि तथा चालीस मुहूर्त्त का, माहेन्द्र देवलोक के देवों का चौबीस रात्रिदिन और बीस मुहूर्त्त का, ब्रह्मलोकवर्ती देवों का ४५ रात्रिदिवस का, लान्तक देवों का ९० रात्रिदिवस का, महाशुक्र – देवलोकस्थ देवों का १६० अहोरात्रि का, सहस्रारदेवों का दो सौ रात्रिदिन का, आनत और प्राणत देवलोक के देवों का संख्येय मास का, आरण और अच्युत देवलोक के देवों का संख्येय वर्षों का अवस्थान – काल है। इसी प्रकार नौ ग्रैवेयक देवों के विषय में जान लेना चाहिए। विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानवासी देवों का अवस्थानकाल असंख्येय हजार वर्षों का है। तथा सर्वार्थसिद्ध – विमानवासी देवों का अवस्थानकाल पल्योपम का संख्यातवा भाग है। और ये सब जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यातवे भाग तक बढ़ते – घटते हैं; और इनका अवस्थानकाल जो ऊपर कहा गया है, वही है। भगवन् ! सिद्ध कितने काल तक बढ़ते हैं ? गौतम ! जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः आठ समय तक सिद्ध बढ़ते हैं। भगवन् ! सिद्ध कितने काल तक अवस्थित रहते हैं ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक सिद्ध अवस्थित रहते हैं। जीव हीन/वृद्धि - भगवती सूत्र शतक ५ उद्देशक ८
7. भगवन् ! सभी प्राण, सभी भूत, समस्त जीव और समस्त सत्त्व; क्या उत्पल के मूलरूप में, उत्पल के कन्दरूप में, उत्पल के नालरूप में, उत्पल के पत्ररूप में, उत्पल के केसररूप में, उत्पल की कर्णिका के रूप में तथा उत्पल के थिभुग के रूप में इससे पहले उत्पन्न हुए हैं ? हाँ, गौतम ! अनेक बार अथवा अनन्त बार (पूर्वोक्त रूप से उत्पन्न हुए हैं)। उत्पल (+ (२) शालूक, (३) पलाश, (४) कुम्भी, (५) नाडीक, (६) पद्म, (७) कर्णिका, (८) नलिन) का जीव सभी प्राण, भूत, जीव, सत्व में पहले जन्म ले चुका है। - भगवती सूत्र शतक ११ उद्देशक १-८
8. भगवन् ! जीव किस कारण से शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं ? जयन्ती ! जीव प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापस्थानों के सेवन से शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं, (इत्यादि) प्रथम शतक अनुसार, यावत् संसारसमुद्र से पार हो जाते हैं। भगवन् ! जीवों का भवसिद्धिकत्व स्वाभाविक है या पारिणामिक है ? जयन्ती ! वह स्वाभाविक है, पारिणामिक नहीं। भगवन् ! क्या सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जाएंगे ? हाँ, जयन्ती ! हो जाएंगे। भगवन् ! यदि भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जाएंगे, तो क्या लोक भवसिद्धिक जीवों से रहित हो जाएगा ? जयन्ती ! यह अर्थ शक्य नहीं है। भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? जयन्ती ! जिस प्रकार कोई सर्वाकाश श्रेणी हो, जो अनादि, अनन्त हो, परित्त और परिवृत हो, उसमें से प्रतिसमय एक – एक परमाणु – पुद्गल जितना खण्ड निकालते – निकालते अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी तक निकाला जाए तो भी वह श्रेणी खाली नहीं होती। इसी प्रकार, हे जयन्ती ! ऐसा कहा जाता है कि सब भवसिद्धिक जीव सिद्ध होंगे, किन्तु लोक भवसिद्धिक जीवों से रहित नहीं होगा। जयन्ती श्राविका को भगवान का समाधान कि लोक खाली नहीं होगा। - भगवती सूत्र शतक-१२ उद्देशक-२ जयंति
9. सर्व जीवों का अल्प बहुत - प्रज्ञापना सूत्र , तीसरा बहुवक्तव्यता पद। इसमें अगर भगवान को वे जीव की अलग राशि दिखती तो भगवान उनको भी कहते। अंतिम में सर्व जीव कहा है तो इससे भिन्न और एक समूह पकड़ना आगम बादिथ होने की सम्भावना बड़ती है।
10. हे भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वी में सब जीव पहले काल – क्रम से उत्पन्न हुए हैं तथा युगपत् उत्पन्न हुए हैं ? गौतम ! कालक्रम से सब जीव पहले उत्पन्न हुए हैं किन्तु सब जीव एक साथ रत्नप्रभा में उत्पन्न नहीं हुए। इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना। जीवाजीवअभिगम चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति।
11. निगोद काया स्थिति 21/2 पुद्गल परिवर्तन काल। सूक्ष्म जीव काया स्थिति - असंख्यत काल। पन्नवन्ना सूत्र पद १८
विशेषण वृत्तिशेषनवती
संस्कृत पाठ का सुव्यवस्थित रूप:
अत्रोच्यते—
इह द्विविधा जीवाः—सांव्यवहारिकाः असांव्यवहारिकाश्चेति।
तत्र, ये निगोदावस्थात् उद्धृत्य पृथिवीकायिकादिभेदेषु वर्तन्ते,
ते लोकेषु दृष्टिपथमागताः सन्तः,
पृथिवीकायिकादिव्यवहारमनुपतन्तीति व्यवहारिका उच्यन्ते।
ते च यद्यपि भूयोऽपि निगोदावस्थामुपयान्ति,
तथापि ते सांव्यवहारिका एव, संव्यवहारे पतितत्वात्।
ये पुनः अनादिकालात् निगोदावस्थामुपगता एव अवतिष्ठन्ते,
ते व्यवहारपथाऽतीतत्वात् असांव्यवहारिकाः।
परं आह—
कथम् एतदवसीयते यद् द्विविधा जीवाः सांव्यवहारिका असांव्यवहारिकाश्चेति?
उच्यते—
युक्तिवशात्, तथाहि—
इह प्रत्युत्पन्नवनस्पतीनामपि निर्लेपनमागमे प्रतिषिद्धं,
कि पुनः सकलवनस्पतीनां तथा भव्यानामपि तच्च
यद्यसांव्यवहारिकराशिनिपतिता अत्यन्तवनस्पतयो न स्युः ततः कथमुपपद्यत? तस्मादवसीयते।
अस्त्यसांन्यवहारिकराशिरपि यद्रतानां वनस्पतीनामनादिता।
एतदेवाह ग्रन्थकारः- न च प्रत्युत्पन्नवनस्पतीनां निर्लपनं भवतीति सम्बन्धः।
अत्राऽपेरध्याहाराद् आस्तां सर्ववनस्पतीनां वर्तमानसमये वनस्पतिभावे,
उत्पन्नानामपि सर्वजीवानां निर्लेपनं कदापि न भवति,
न च सर्वेषां भव्यानां तद् निर्लेषणं युक्तं भवति।
तद् निर्लेपाऽभावादि न युक्तं भवति यदि अत्यन्तवनस्पतिरनास्ति।
अस्ति च साऽनादिवनस्पतिः तस्मानिर्लपनं न युक्तम्।
सिद्धान्तेऽपि तत्र तत्र वनस्पतिनामनादित्वस्य
तत् निर्लेपप्रतिषेधस्य सर्वभव्याऽसिद्धरमोक्षमार्गान्यवच्छेदस्य च प्रतिपादनात्।।५१।।
एवं चानादिवनस्पतीनामस्तित्वमर्थतः सिद्धम्।
एतत्संवादिनी इयमपि गुरूपदेशाऽऽगता गाथा समये भण्यते -
सन्ति अनन्ता जीवा यैनं लब्धः त्रसादिपरिणामः।
तेऽपि अनन्तानन्ता निगोदवासमनुवसन्ति।।९।।
जीवान् प्रतीत्य परवर्तन्ते नाऽनादिवनस्पतिजीवान श्रित्य यत् यस्मात् ते संब्यवहारबाह्याः ।५८-५९।।
अथ किं जीवा अव्यवहाररशर्विनिरगत्य संव्यवहारगशावागच्छन्ति? येनैवं प्ररूपणा क्रियते?
उच्चते - आगच्छनति पूर्वाचार्योपदेशात् यावन्तो जीवा; संव्यवहारराशेर्विनिर्गत्य सिध्यन्ति तावन्त एवाऽनादिन्यवहारराशितो विनिर्गत्य तस्मिन् संव्यवहारराशौ आगच्छन्तीति।।६०।।
हिंदी अनुवाद:
यहाँ कहा जाता है—
इस संसार में दो प्रकार के जीव होते हैं—सांव्यवहारिक (व्यवहार में प्रकट) और असांव्यवहारिक (व्यवहार में अप्रकट)।
उनमें से जो निगोद की अवस्था से बाहर निकलकर पृथ्वी-कायिक आदि भेदों में रहते हैं, वे संसार में दृष्टिगोचर होते हैं और पृथ्वी-कायिक आदि के व्यवहार का अनुसरण करते हैं, इसलिए उन्हें सांव्यवहारिक कहा जाता है।
हालाँकि वे पुनः निगोद की अवस्था में लौट सकते हैं, फिर भी वे व्यवहार में सम्मिलित होने के कारण सांव्यवहारिक ही कहलाते हैं।
दूसरी ओर, जो अनादिकाल से निगोद की अवस्था में ही स्थिर रहते हैं, वे व्यवहार के क्षेत्र से परे होने के कारण असांव्यवहारिक कहलाते हैं।
फिर प्रश्न उठता है—
यह कैसे निश्चित किया जा सकता है कि जीव दो प्रकार के होते हैं—सांव्यवहारिक और असांव्यवहारिक?
इसका उत्तर यह है—
यह तर्क के आधार पर प्रमाणित होता है। जैसे—
यहाँ तक कि जो वनस्पतियाँ अभी-अभी उत्पन्न हुई हैं, उनके तोड़ने को भी आगम में वर्जित किया गया है, तो फिर सभी वनस्पतियों और भविष्य में मुक्त होने वाले आत्माओं के प्रति यह नियम क्यों नहीं लागू होगा?
यदि असांव्यवहारिक श्रेणी में अत्यन्त वनस्पतियां नहीं हों, तो यह स्थिति कैसे संभव हो सकती है? इसलिए, यह स्वीकार करना पड़ता है कि असांव्यवहारिक श्रेणी में भी कुछ ऐसी वनस्पतियां हैं जो अनादिकाल से विद्यमान हैं। ग्रंथकार ने यह स्पष्ट किया है कि उत्पन्न वनस्पतियों का निर्लेप निषेध नहीं है।
वर्तमान समय में, सभी वनस्पतियों के वनस्पति-स्वभाव और सभी जीवों के निर्लेप की बात संभव नहीं है। न ही सभी भव्यों का निर्लेप उचित है। यदि अत्यन्त वनस्पतियां नहीं होतीं, तो निर्लेप की निषेधता उचित नहीं होती। अतः यह स्पष्ट होता है कि अनादि वनस्पतियां भी विद्यमान हैं।
सिद्धांत में भी, अनादिकालीन वनस्पतियों की बात और उनके निर्लेप निषेध की बात प्रमाणित है। इस प्रकार, यह स्पष्ट किया गया है कि अनादिकालीन वनस्पतियों का अस्तित्व तर्कसंगत है। गुरुओं की उपदेश परंपरा में भी यह गाथा मिलती है:
"अनंत जीव हैं, जिन्होंने त्रसादि परिणति को प्राप्त किया। वे सभी अनादिकाल से निगोदवास में रहते हैं।
जीव और व्यवहार:
जीव (प्राणी) केवल उनके अस्तित्व को ही मानते हैं, जो सामान्य व्यवहार के दायरे से बाहर हैं।
प्रश्न:
क्या जीव व्यवहार के सामान्य समूह से बाहर होकर उसमें शामिल हो सकते हैं? ऐसा कहने का आधार क्या है?
उत्तर:
पूर्वाचार्यों की शिक्षा के अनुसार, जितने जीव सामान्य व्यवहार के दायरे से बाहर माने गए हैं, उतने ही जीव व्यवहारिक समूह में शामिल हो जाते हैं।