Skip to main content

आराधक

जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र की समयक आराधना करे वह आराधना करने वाला या आराधक कहलाता है। आगम में स्पष्ट परिभाषा नहीं मिलती है पर मुख्यतर से दो परिभाषा के भाव मिलते है

  1. जो ज्ञान, दशर्न, चारित्र की आराधना करे वह आराधक। 
  2. जो अंतिम समय में किए हुए पापों की आलोचना करें वह परलोक का आराधक। 

ज्ञान की आराधना किसे कहते है?

दर्शन की आराधना किसे कहते है?

चारित्र की आराधना किसे कहते है?

दो सिद्धांत है जिनमें पूरा प्रमाण या आधार भूत सपस्टिकरन नहीं हुआ है और थोड़े मतभेद और अलग अलग मान्यता है।

  1. समकित में आयुष बांधे तो आराधक। 
  2. आराधक के शेष भव। 

 

कुछ आगम प्रमाण

जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना करे वो आराधक 

  1. भगवान ने नरक तिर्यंचयोनि, मानुषभाव, देवलोक तथा सिद्ध, सिद्धावस्था एवं छह जीवनिकाय का विवेचन किया। जैसे – जीव बंधते हैं, मुक्त होते हैं, परिक्लेश पाते हैं। कईं अप्रतिबद्ध व्यक्ति दुःखों का अन्त करते हैं। पीड़ा वेदना या आकुलतापूर्ण चित्तयुक्त जीव दुःख – सागर को प्राप्त करते हैं, वैराग्य प्राप्त जीव कर्म – बल को ध्वस्त करते हैं। रागपूर्वक किये गये कर्मों का फलविपाक पापपूर्ण होता है, कर्मों से सर्वथा रहित होकर जीव सिद्धावस्था प्राप्त करते हैं – यह सब (भगवान ने) आख्यात किया। आगे भगवान ने बतलाया – धर्म दो प्रकार का है – अगार – धर्म और अनगार – धर्म। 

अनगार – धर्म में साधक सर्वतः सर्वात्मना, सर्वात्मभाव से सावद्य कार्यों का परित्याग करता हुआ मुण्डित होकर, गृहवास से अनगार दशा में प्रव्रजित होता है। वह संपूर्णतः प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्ता – दान, मैथुन, परिग्रह तथा रात्रि – भोजन से विरत होता है। भगवान ने कहा – आयुष्मान्‌ ! यह अनगारों के लिए समाचरणीय धर्म कहा गया है। इस धर्म की शिक्षा या आचरण में उपस्थित रहते हुए निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी साध्वी आज्ञा के आराधक होते हैं। 

भगवान ने अगारधर्म १२ प्रकार का बतलाया – ५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत तथा ४ शिक्षाव्रत। ५ अणुव्रत इस प्रकार हैं – १. स्थूल प्राणातिपात से निवृत्त होना, २. स्थूल मृषावाद से निवृत्त होना, ३. स्थूल अदत्तादन से निवृत्त होना, ४. स्वदारसंतोष मैथुन की सीमा, ५. परिग्रह की ईच्छा का परिमाण। ३ गुणव्रत इस प्रकार हैं – अनर्थदंड – विरमण, २. दिग्व्रत, ३. उपभोग – परिभोग – परिमाण। ४ शिक्षाव्रत इस प्रकार हैं – १. सामायिक, २. देशावकाशिक, ३. पोषधोपवास, ४. अतिथि – संविभाग। तितिक्षापूर्वक अन्तिम मरण रूप संलेखणा भगवान ने कहा – आयुष्यमान्! यह गृही साधकों का आचरणीय धर्म है। इस धर्म के अनुसरण में प्रयत्नशील होते हुए श्रमणोपासक – श्रावक या श्रमणोपासिका – श्राविका आज्ञा के आराधक होते हैं। 

औपपातिक  सूत्र समवसरण वर्णन

  1. इस प्रकार इन पंचविध व्यवहारों (आगम व्यवहार, श्रुतव्यवहार, आज्ञाव्यवहार, धारणाव्यवहार और जीतव्यवहार) में से जब – जब और जहाँ – जहाँ जो व्यवहार सम्भव हो, तब – तब और वहाँ – वहाँ उससे, राग और द्वेष से रहित होकर सम्यक्‌ प्रकार से व्यवहार करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ आज्ञा का आराधक होता है। भगवती सूत्र शतक-८ उद्देशक-८ प्रत्यनीक और स्थानांग सूत्र स्थान-५। 
  2. इस प्रकार इन पंच भावनाओं से विशिष्ट तथा स्वीकृत मृषावाद – विरमणरूप, द्वीतिय सत्यमहाव्रत का काया से सम्यक्‌स्पर्श करने, पालन करने, गृहीत महाव्रत को पार लगाने, कीर्तन करने एवं अन्त तक अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप आराधक हो जाता है। आचारांग सूत्र श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना
  3. इस प्रकार पंच भावनाओं से विशिष्ट एवं स्वीकृत अदत्तादान – विरमणरूप तृतीय महाव्रत का सम्यक्‌ प्रकार से काया से स्पर्श करने, यावत्‌ अंत तक अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा का सम्यक्‌ आराधक हो जाता है। आचारांग सूत्र श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना 
  4. इस प्रकार इन पंच भावनाओं से विशिष्ट एवं स्वीकृत मैथुन – विरमण रूप चतुर्थ महाव्रत का सम्यक्‌ प्रकार से काया से स्पर्श करने यावत्‌ भगवदाज्ञा के अनुरूप सम्यक्‌ आराधक हो जाता है। आचारांग सूत्र श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना 
  5. इस प्रकार पंच भावनाओं से विशिष्ट तथा साधक द्वारा स्वीकृत परिग्रह – विरमण रूप पंचम महाव्रत का काया से सम्यक्‌ स्पर्श करने, पालन करने, स्वीकृत महाव्रत को पार लगाने, कीर्तन करने तथा अन्त तक उसमें अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप आराधक हो जाता है।
  6. इन (पूर्वोक्त) पाँच महाव्रतों और उनकी पच्चीस भावनाओं से सम्पन्न अनगार यथाश्रुत, यथाकल्प और यथामार्ग, इनका काया से सम्यक्‌ प्रकार से स्पर्श कर, पालन कर, इन्हें पार लगाकर, इनके महत्त्व का कीर्तन करके भगवान की आज्ञा के अनुसार इनका आराधक बन जाता है। – ऐसा मैं कहता हूँ। आचारांग सूत्र श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना
  7. भगवन्‌ ! (वही सत्य और निःशंक है, जो जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित है) इस प्रकार मन में धारण (निश्चय) करता हुआ, उसी तरह आचरण करता हुआ, यों रहता हुआ, इसी तरह संवर करता हुआ जीव क्या आज्ञा का आराधक होता है ? हाँ, गौतम ! इसी प्रकार मन में निश्चय करता हुआ यावत्‌ आज्ञा का आराधक होता है। भगवती सूत्र शतक-१ उद्देशक-३ कांक्षा प्रदोष
  8. हे भगवन्‌ ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार क्या भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक हैं ?; सम्यग्दृष्टि हैं, या मिथ्या – दृष्टि हैं ? परित्त संसारी हैं या अनन्त संसारी ? सुलभबोधि हैं, या दुर्लभबोधि ?; आराधक है, अथवा विराधक ? चरम है अथवा अचरम ? गौतम ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार, भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं; इसी तरह वह सम्यग्दृष्टि है, परित्तसंसारी है, सुलभबोधि है, आराधक है, चरम है, प्रशस्त पद ग्रहण करने चाहिए। भगवन्‌ ! किस कारण से (ऐसा कहा जाता है) ? गौतम ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार बहुत – से श्रमणी, बहुत – सी श्रमणियाँ, बहुत – से श्रावकों और बहुत – सी श्राविकाओं का हितकामी, सुखकामी, पथ्यकामी, अनुकम्पिक, निश्रेयसिक है। वह उनका हित, सुख और निःश्रेयस का कामी है।इसी कारण, गौतम ! सनत्कुमारेन्द्र भवसिद्धिक है, यावत्‌ (चरम है, किन्तु) अचरम नहीं। भगवती सूत्र शतक-३ उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा। इसी प्रकार अन्य देव का भी उल्लेख मिलता है।
  9. गृहस्थ के घर आहार ग्रहण करने की बुद्धि से प्रविष्ट निर्ग्रन्थ द्वारा किसी अकृत्य स्थान का प्रतिसेवन हो गया हो और तत्क्षण उसके मन में ऐसा विचार हो कि प्रथम मैं यहीं इस अकृत्यस्थान की आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा और गर्हा करूँ; (उसके अनुबन्ध का) छेदन करूँ, इस (पाप – दोष से) विशुद्ध बनूँ, पुनः ऐसा अकृत्य न करने के लिए अभ्युद्यत होऊं और यथोचित प्रायश्चित्तरूप तपःकर्म स्वीकार कर लूँ। तत्पश्चात्‌ स्थविरों के पास जाकर आलोचना करूँगा, यावत्‌ प्रायश्चित्तरूप तपःकर्म स्वीकार कर लूँगा, (ऐसा सोच के) वह निर्ग्रन्थ, स्थविर मुनियों के पास जाने के लिए रवाना हुआ; किन्तु स्थविर मुनियों के पास पहुँचने से पहले ही वे स्थविर मूक हो जाएं तो हे भगवन्‌ ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक ? गौतम ! वह (निर्ग्रन्थ) आराधक है, विराधक नहीं। 

यावत्‌ उनके पास पहुँचने से पूर्व ही वह निर्ग्रन्थ स्वयं मूक हो जाए, तो हे भगवन्‌ ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक ? गौतम वह (निर्ग्रन्थ) आराधक है, विराधक नहीं। 

(उपर्युक्त अकृत्यसेवी) निर्ग्रन्थ स्थविर मुनियों के पास आलोचनादि के लिए रवाना हुआ, किन्तु उसके पहुँचने से पूर्व ही वे स्थविर मुनि काल कर जाएं, तो हे भगवन्‌ ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक ? गौतम ! वह आराधक है, विराधक नहीं। 

भगवती सूत्र शतक-८ उद्देशक-६ प्रासुक आहारादि। इस सूत्र में आगे और कई उदाहरान और ऐसे भंग बताए है। 

  1. मैंने चार प्रकार के पुरुष कहे हैं। – एक व्यक्ति शीलसम्पन्न है, किन्तु श्रुतसम्पन्न नहीं है। एक व्यक्ति श्रुतसम्पन्न है, किन्तु शीलसम्पन्न नहीं है। एक व्यक्ति शीलसम्पन्न भी है और श्रुतसम्पन्न भी है। एक व्यक्ति न शीलसम्पन्न है और न श्रुतसम्पन्न है। 

इनमें से जो प्रथम प्रकार का पुरुष है, वह शीलवान् है, परन्तु श्रुतवान् नहीं। वह उपरत है, किन्तु धर्म को विशेषरूप से नहीं जानता। हे गौतम ! उसको मैंने देश आराधक कहा है। 

इनमें से जो दूसरा पुरुष है, वह शीलवान् नहीं, परन्तु श्रुतवान है। वह अनुपरत है, परन्तु धर्म को विशेषरूप से जानता है। है गौतम ! उसको मैंने देश विराधक कहा है। 

इनमें से जो तृतीय पुरुष है, वह पुरुष शीलवान् भी है और श्रुतवान भी है। वह उपरत है और धर्म का भी विज्ञाता है। हे गौतम ! उसको मैंने सर्व आराधक कहा है। 

इनमें से जो चौथा पुरुष है, वह न तो शीलवान् है और न श्रुतवान है। वह अनुपरत है, धर्म का भी विज्ञाता नहीं है। मैंने सर्व विराधक कहा है। 

भगवती सूत्र शतक-८ उद्देशक-२ आराधना

  1. श्रमण भगवान महावीर ने सुदर्शन श्रेष्ठी और उस विशाल परीषद्‌ को धर्मोपदेश दिया, यावत्‌ वह आराधक हुआ। भगवती सूत्र शतक-११ उद्देशक-११ काल। ऐसा ही और जगह पे आता है जहां भगवान ने परीषद्‌ को धर्मोपदेश दिया और उसके बाद या तो वह आराधक हुआ या आज्ञा के आराधक होते हैं कहा है। आलभिका नगरी के श्रमणोपासक, शिवराजर्षि आदि। 
  2. इस प्रकार यह एक रात्रि की – बारहवीं भिक्षुप्रतिमा को सूत्र – कल्प – मार्ग तथा यथार्थरूप से सम्यक्‌ प्रकार से स्पर्श, पालन, शोधन, पूरण, कीर्तन तथा आराधन करनेवाले जिनाज्ञा के आराधक होते हैं। दशाश्रुतस्कंध सूत्र दशा ७ भिक्षु प्रतिमा
  3. जो साधु गुण – दोषों की परीक्षा करके बोलने वाला है, जिसकी इन्द्रियाँ सुसमाहित हैं, चार कषायों से रहित है, अनिश्रित है, वह पूर्वकृत पाप – मल को नष्ट करके इस लोक तथा परलोक का आराधक होता है। – ऐसा मैं कहता हूँ। दशवैकालिक सूत्र अध्ययन-७ वाकशुद्धि
  4. ‘हे भगवन्‌ ! जीव किस प्रकार आराधक और किस प्रकार विराधक है ?’ हे गौतम ! 

जैसे एक समुद्र के किनारे दावद्रव नामक वृक्ष कहे गये हैं वे कृष्ण वर्ण वाले यावत्‌ निकुरंब रूप हैं। पत्तों वाले, फलों वाले, अपनी हरियाली के कारण मनोहर और श्री से अत्यन्त शोभित – शोभित होते हुए स्थित हैं। जब द्वीप सम्बन्धी ईषत्‌ पुरोवात पथ्यवात, मन्द वात और महावात चलती है, तब बहुत – से दावद्रव नामक वृक्ष पत्र आदि से युक्त होकर खड़े रहते हैं। 

उनमें से कोई – कोई दावद्रव वृक्ष जीर्ण जैसे हो जाते हैं, झोड़ हो जाते हैं, अत एव वे खिले हुए पीले पत्तों, पुष्पों और फलों वाले हो जाते हैं और सूखे पेड़ की तरह मुरझाते हुए खड़े रहते हैं। इसी प्रकार हे आयुष्मन्‌ श्रमणों ! जो साधु या साध्वी यावत्‌ दीक्षित होकर बहुत – से साधुओं, साध्वीओं, श्रावकों और श्राविकाओं के प्रतिकूल वचनों को सम्यक्‌ प्रकार से सहन करता है, यावत्‌ विशेष रूप से सहन करता है, किन्तु बहुत – से अन्य तीर्थिकों के तथा गृहस्थों के दुर्वचन को सम्यक्‌ प्रकार से सहन नहीं करता है, यावत्‌ विशेष रूप से सहन नहीं करता है, ऐसे पुरुष को मैंने देश विराधक कहा है। 

आयुष्मन्‌ श्रमणों ! जब समुद्र सम्बन्धी ईषत्‌ पुरोवात, पथ्य या पश्चात्‌ वात, मंदवात और महावात बहती हैं, तब बहुत – से दावद्रव वृक्ष जीर्ण – से हो जाते हैं, झोड़ हो जाते हैं, यावत्‌ मुरझाते – मुरझाते खड़े रहते हैं। किन्तु कोई – कोई दावद्रव वृक्ष पत्रित, पुष्पित यावत्‌ अत्यन्त शोभायमान होते हुए रहते हैं इसी प्रकार हे आयुष्मन्‌ श्रमणों! जो साधु अथवा साध्वी दीक्षित होकर बहुत – से अन्यतीर्थिकों के और बहुत – से गृहस्थों के दुर्वचन सम्यक्‌ प्रकार से सहन करता है और बहुत – से साधुओं, साध्वीओं, श्रावकों तथा श्राविकाओं के दुर्वचन सम्यक्‌ प्रकार से सहन नहीं करता, उस पुरुष को मैंने देशाराधक कहा है। 

आयुष्मन्‌ श्रमणों ! जब द्वीप सम्बन्धी और समुद्र सम्बन्धी एक भी ईषत्‌ पुरोवात, पथ्य या पश्चात्‌ वात, यावत्‌ महावात नहीं बहती, तब सब दावद्रव वृक्ष जीर्ण सरीखे हो जाते हैं, यावत्‌ मुरझाए रहते हैं। इसी प्रकार हे आयुष्मन्‌ श्रमणों ! जो साधु या साध्वी, यावत्‌ प्रव्रजित होकर बहुत – से साधुओं, साध्वीयों, श्रावकों, श्राविकाओं, अन्यतीर्थिकों एवं गृहस्थों के दुर्वचन शब्दों को सम्यक्‌ प्रकार से सहन नही करता, उस को मैंने सर्वविराधक कहा। 

जब द्वीप सम्बन्धी और समुद्र सम्बन्धी भी ईषत्‌ पुरोवात, पथ्य या पश्चात्‌ वात, यावत्‌ बहती हैं, तब तभी दावद्रव वृक्ष पत्रित, पुष्पित, फलित यावत्‌ सुशोभित रहते हैं। हे आयुष्मन्‌ श्रमणों ! इसी प्रकार जो साधु या साध्वी बहुत – से श्रमणों के, श्रमणियों के, श्रावकों के, श्राविकाओं के, अन्यतीर्थिकों के और गृहस्थों के दुर्वचन सम्यक्‌ प्रकार से सहन करता है, उस पुरुष को मैंने सर्वाराधक कहा है। इस प्रकार हे गौतम ! जीव आराधक और विराधक होते हैं।  

ज्ञातधर्मकथांग सूत्र श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-११ दावद्रव

  1. हे भगवन्‌ ! भाषाजात कितने हैं ? गौतम ! चार। सत्या, मृषा, सत्यामृषा और असत्यामृषा। भगवन्‌ ! इन चारों भाषा – प्रकारों को बोलता हुआ (जीव) आराधक होता है, अथवा विराधक ? गौतम ! उपयोगपूर्वक बोलने वाला आराधक होता है, विराधक नहीं। उससे पर जो असंयत, अविरत, पापकर्म का प्रपिघात और प्रत्याख्यान न करने वाला सत्यभाषा, मृषाभाषा, सत्यामृषा और असत्यामृषा भाषा बोलता हुआ आराधक नहीं, विराधक है। प्रज्ञापना सूत्र पद-११ भाषा
  2. अस्तेय व्रत के आराधक का वर्णन - जो भी पीठ, पाट, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहरण, आसन, चोलपट्टक, मुखवस्त्रिका और पादप्रोञ्छन आदि, पात्र, मिट्टी के पात्र और अन्य उपकरणों का जो आचार्य आदि साधर्मिकों में संविभाग नहीं करता, वह अस्तेयव्रत का आराधक नहीं होता। जो असंग्रहरुचि है, जो तपस्तेन है, वचनस्तेन है, रूपस्तेन है, जो आचार का चोर है, भावस्तेन है, जो शब्दकर है, जो गच्छ में भेद उत्पन्न करने वाले कार्य करता है, कलहकारी, वैरकारी और असमाधिकारी है, जो शास्त्रोक्त प्रमाण से सदा अधिक भोजन करता है, जो सदा वैर बाँध रखने वाला है, सदा क्रोध करता रहता है, ऐसा पुरुष इस अस्तेयव्रत का आराधक नहीं होता है। 

किस प्रकार के मनुष्य इस व्रत के आराधक हो सकते हैं ? इस अस्तेयव्रत का आराधक वही पुरुष हो सकता है जो – वस्त्र, पात्र आदि धर्मोपकरण, आहार – पानी आदि का संग्रहण और संविभाग करने में कुशल हो। जो अत्यन्त बाल, दुर्बल, रुग्ण, वृद्ध और मासक्षपक आदि तपस्वी साधु की, प्रवर्त्तक, आचार्य, उपाध्याय की, नव – दीक्षित साधु की तथा साधर्मिक, तपस्वी कुल, गण, संघ के चित्त की प्रसन्नता के लिए सेवा करने वाला हो। जो निर्जरा का अभिलाषी हो, जो अनिश्रित हो, वही दस प्रकार का वैयावृत्य, अन्नपान आदि अनेक प्रकार से करता है। वह अप्रीतिकारक गृहस्थ के कुल में प्रवेश नहीं करता और न अप्रीतिकारक के घर का आहार – पानी ग्रहण करता है। अप्रीतिकारक से पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहरण, आसन, चोलपट्ट, मुख – वस्त्रिका एवं पादप्रोंछन भी नहीं लेता है। वह दूसरों की निन्दा नहीं करता और न दूसरे के दोषों को ग्रहण करता है। जो दूसरे के नाम से कुछ भी ग्रहण नहीं करता और न किसी को दानादि धर्म से विमुख करता है, दूसरे के दान आदि सुकृत का अथवा धर्माचरण का अपलाप नहीं करता है, जो दानादि देकर और वैयावृत्त्य आदि करके पश्चात्ताप नहीं करता है, ऐसा आचार्य, उपाध्याय आदि के लिए संविभाग करने वाला, संग्रह एवं उपकार करने में कुशल साधक ही इस अस्तेयव्रत का आराधक होता है। प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-३ दत्तानुज्ञा 

  1. निर्ग्रन्थ चार प्रकार के हैं। 

यथा – एक निर्ग्रन्थ दीक्षा में ज्येष्ठ है किन्तु महापाप कर्म और महापाप क्रिया करता है। न कभी आतापना लेता है और न पंचसमितियों का पालन ही करता है। अतः वह धर्म का आराधक नहीं है। 

एक निर्ग्रन्थ दीक्षा में ज्येष्ठ है किन्तु पापकर्म और पाप क्रिया कदापि नहीं करता है। आतापना लेता है और समितियों का पालन भी करता है। अतः वह धर्म का आराधक होता है। 

एक निर्ग्रन्थ दीक्षा में लघु है किन्तु महापाप कर्म और महापाप क्रिया करता है, न कभी आतापना लेता है और न समितियों का पालन करता है। अतः वह धर्म का आराधक नहीं होता है। 

एक निर्ग्रन्थ दीक्षा में लघु है किन्तु कदापि पाप कर्म और पाप क्रिया नहीं करता है, आतापना लेता है और समितियों का पालन भी करता है। अतः वह धर्म का आराधक होता है। इसी प्रकार निर्ग्रन्थियों, श्रावकों और श्राविकाओं के भांगे कहें। 

स्थानांग सूत्र स्थान-४ उद्देशक-३। 

  1. मायावी माया करके आलोयणा करता है - एक वक्त माया करे आलोचना न करे तो आराधक नहीं होता है। एक वक्त माया करके आलोचना करे तो आराधक होता है। अनेक बार माया करके आलचना न करे तो आराधक नहीं होता है। अनेक बार माया करके भी आलोचना करे तो आराधक होता है। स्थानांग सूत्र स्थान-८
  2. भन्ते ! संवेग से जीव को क्या प्राप्त होता है ? संवेग से जीव अनुत्तर – परम धर्म – श्रद्धा को प्राप्त होता है। परम धर्म श्रद्धा से शीघ्र ही संवेग आता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय करता है। नए कर्मों का बन्ध नहीं करता है। मिथ्यात्वविशुद्धि कर दर्शन का आराधक होता है। दर्शनविशोधि के द्वारा कईं जीव उसी जन्म से सिद्ध होते हैं। और कुछ तीसरे भवका अतिक्रमण नहीं करते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम
  3. भन्ते ! मनोगुप्ति से जीव को क्या प्राप्त होता है ? मनोगुप्ति से जीव एकाग्रता को प्राप्त होता है। एकाग्र चित्त वाला जीव अशुभ विकल्पों से मन की रक्षा करता है, और संयम का आराधक होता है। उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम
  4. प्रतिलेखन करते समय जो परस्पर वार्तालाप करता है, जनपद कथा करता है, प्रत्याख्यान कराता है, दूसरों को पढ़ाता है – वह प्रतिलेखना में प्रमत्त मुनि पृथ्वीकाय, अप्‌काय, तेजस्‌काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय – छहों कायों का विराधक होता है। प्रतिलेखन में अप्रमत्त मुनि छहों कायों का आराधक होता है। उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन-२६ सामाचारी
  5. भन्ते ! ऋजुता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? ऋजुता से जीव काय, भाव, भाषा की सरलता और अविसंवाद को प्राप्त होता है। अविसंवाद – सम्पन्न जीव धर्म का आराधक होता है। उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम
  6. भन्ते ! भाव – सत्य से जीव को क्या प्राप्त होता है ? भाव – सत्य से जीव भाव – विशुद्धि को प्राप्त होता है। भाव – विशुद्धि में वर्तमान जीव अर्हत्‌ प्रज्ञप्त धर्म की आराधना में उद्यत होता है। अर्हत्‌ प्रज्ञप्त धर्म की आराधना में उद्यत होकर परलोक में भी धर्म का आराधक होता है। उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम
  7. तत्पश्चात्‌ स्कन्दक अनगार ने द्विमासिकी भिक्षुप्रतिमा को स्वीकार किया। यावत्‌ सम्यक्‌ प्रकार से आज्ञापूर्वक आराधन किया। इसी प्रकार त्रैमासिकी, चातुर्मासिकी, पंच – मासिकी, षाण्मासिकी एवं सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा की यथावत्‌ आराधना की। भगवती सूत्र शतक-२ उद्देशक-१। ऐसे और उदाहरान जहां सही आराधना के बारे में उल्लेख है। 

परलोक के आराधक 

जो अंतिम समय में किए हुए पापों की आलोचना करें, संलेखना करें 

  1. क्या वे परलोक के आराधक होते हैं ? नहीं ऐसा नहीं होता। ऐसा कई जगह पर बताया है जहां अकाम निर्जरा का संदर्भ है। औपपातिक सूत्र उपपात वर्णन
  2. अम्बड़ परिव्राजक के सात सौ अन्तेवासी - अंतिम समय में संलेखना द्वारा जिनके शरीर तथा कषाय दोनों ही कृश हो रहे थे, उन परिव्राजकों ने आहार – पानी का परित्याग कर दिया। कटे हुए वृक्ष की तरह अपने शरीर को चेष्टा – शून्य बना लिया। मृत्यु की कामना न करते हुए शान्त भाव से वे अवस्थित रहे। इस प्रकार उन परिव्राजकों ने बहुत से चोरों प्रकार के आहार अनशन द्वारा छिन्न किए – वैसा कर दोषों की आलोचना की – उनका निरीक्षण किया, उनसे प्रतिक्रान्त हुए, समाधि – दशा प्राप्त की। मृत्यु – समय आने पर देह त्याग कर ब्रह्मलोक कल्प में वे देव रूप में उत्पन्न हुए। उनके स्थान के अनुरूप उनकी गति बतलाई गई है। उनका आयुष्य दस सागरोपम कहा गया है। वे परलोक के आराधक हैं। औपपातिक सूत्र उपपात वर्णन 
  3. ऐसे ही कई उल्लेख है इस सूत्र में जहां जिस जीव ने अंतिम समय में संलेखना, पाप – स्थानों की आलोचना कर आराधक हुए और इसके विपरीत, पाप – स्थानों की आलोचना किए बिना काल किया तो विराधक हुए। औपपातिक सूत्र उपपात वर्णन
  4. यदि वह विद्याचारण मुनि उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना ही काल कर जाए तो उसको आराधना नहीं होती और यदि वह आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है तो उसको आराधना होती है। भगवती सूत्र शतक-२० उद्देशक-९ चारण।  इसी प्रकार जंघाचारण के बारे में।
  5. मायी अनगार यदि उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही कालधर्म को प्राप्त हो जाए तो उसके आराधना नहीं होती। भगवती सूत्र शतक-१३ उद्देशक-९ अनगारवैक्रिय
  6. आधाकर्म आदि दोषों की आलोचना किए बिना काल करे तो आराधना नहीं होती। भगवती सूत्र शतक-५ उद्देशक-६ आयु