दुख किन जीवों में ज़्यादा?
प्रचलित मान्यता है की "निगोद के जीवों को सबसे ज़्यादा, नरक से भी अनंत गुना दुख होता है।"। इसका स्पष्ट प्रमाण आगम में नहीं मिलता। सुना तो यही था की नरक में सबसे ज़्यादा दुःख होता है।
दोनो मतों के आधार और प्रमाण का संग्रह -
निगोद में ज़्यादा दुःख
- जं॑ नरए नेरइया दुख्खं पावंति गोअमा तिख्खम् । त॑ पुण निगोअजीवा अणंत गुणियं वियाणाहि ॥३४॥ लोकप्रकाश , ४th सर्ग। श्री भगवती सूत्र में गौतम गणधर के प्रश्न का श्री वीर परमात्मा ने उत्तर देते हुए कहा है कि:
"हे गौतम! नरक में रहे नारकी जीवों को जो तीक्ष्ण दुःख प्राप्त होता है, इससे भी अनंत गुणा दुःख निगोद के जीवों को होता है। ऐसा समझना।" (३४) लोकप्रकाश , चौथा सर्ग - इसका भगवती में संदर्भ अभी तक नहीं मिला है।
नरक में ज़्यादा दुःख
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हे भगवन् ! जीव (क्या) महावेदना और महानिर्जरा वाले हैं, महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं, अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले हैं, अथवा अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं ? गौतम ! कितने ही जीव महावेदना और महानिर्जरा वाले हैं, कितने ही जीव महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं, कईं जीव अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले हैं, तथा कईं जीव अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं। भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? गौतम ! प्रतिमा – प्रतिपन्न अनगार – महावेदना और महानिर्जरा वाला होता है। छठी – सातवीं नरक – पृथ्वीयों के नैरयिक जीव महावेदना वाले, किन्तु अल्पनिर्जरा वाले होते हैं। शैलेशी – अवस्था को प्राप्त अनगार अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले होते हैं और अनुत्तरौपपातिक देव अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले होते हैं। भगवती सूत्र शतक-६ उद्देशक-१ वेदना
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हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ – कितने ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, एकान्तदुःखरूप वेदना वेदते हैं और कदाचित् साता रूप वेदना भी वेदते हैं; कितने ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, एकान्तसाता रूप वेदना वेदते हैं और कदाचित् असाता रूप वेदना भी वेदते हैं तथा कितने ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व विमात्रा से वेदना वेदते हैं। भगवन् ! किस कारण से ऐसा कथन किया जाता है ? गौतम ! नैरयिक जीव, एकान्तदुःखरूप वेदना वेदते हैं और कदाचित् सातारूप वेदना भी वेदते हैं। भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक एकान्तसाता (सुख) रूप वेदना वेदते हैं, किन्तु कदाचित् असातारूप वेदना भी वेदते हैं तथा पृथ्वीकायिक जीवों से लेकर मनुष्यों पर्यन्त विमात्रा से वेदना वेदते हैं। इसी कारण से हे गौतम ! उपर्युक्त रूप से कहा गया है। भगवती सूत्र शतक-६ उद्देशक-१० अन्यतीर्थिक
- हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के पुद्गलों के परिणमन का अनुभव करते हैं ? गौतम ! अनिष्ट यावत् अमणाम पुद्गलों का। इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी के नैरयिकों तक कहना। सर्व नरक पृथ्वीओं में और कोई भी स्थितिवाले नैरयिक का जन्म असातावाला होता है, उनका सारा नारकीय जीवन दुःख में ही बीतता है। नैरयिक जीवों में से कोई जीव उपपात के समय, पूर्व सांगतिक देव के निमित्त से कोई नैरयिक, कोई नैरयिक शुभ अध्यवसायों के कारण अथवा कर्मानुभाव से साता का वेदन करते हैं। सैकड़ों वेदनाओं से अवगाढ़ होने के कारण दुःखों से सर्वात्मना व्याप्त नैरयिक उत्कृष्ट पाँच सौ योजन तक ऊपर उछलते हैं। रात – दिन दुःखों से पचते हुए नैरयिकों को नरक में पलक मूँदने मात्र काल के लिए भी सुख नहीं है किन्तु दुःख ही दुःख सदा उनके साथ लगा हुआ है। नरक में नैरयिकों को अत्यन्त शीत, अत्यन्त उष्णता, अत्यन्त भूख, अत्यन्त प्यास और अत्यन्त भय और सैकड़ों दुःख निरन्तर बने रहते हैं। जीवाभिगम सूत्र, चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति नैरयिक उद्देशक-३
- इस सप्तमपृथ्वी में प्रायः करके नरवृषभ, वासुदेव, जलचर, मांडलिक राजा और महा आरम्भ वाले गृहस्थ उत्पन्न होते हैं। जीवाभिगम सूत्र, चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति नैरयिक उद्देशक-३। और जो नरक जाने के चार कारण बताए है, उनसे भी लगता है की "जैसी करनी वैसी भरनी", तीव्र कर्म उपार्जन के कारण नरक का भव प्राप्त होता है। इसलिए punishment भी ज़्यादा है।