पाँच समवाय
जय जिनेंद्र सा। गहन विचारणीय विषय है।
*पाँच समवाय*
प्रचलित पाँच समवाय - काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत (कर्म), और पुरुषार्थ ये पाँचों ही कारण हर कार्य के प्रति लागू होते हैं। अन्य कारणों का निषेध करके पृथक् पृथक् एक एक का पक्ष पकड़ने पर ये पाँचों ही मिथ्या हैं और सापेक्षरूप से परस्पर मिल जाने पर ये पाँचों ही सम्यक् हैं। सन्मति तर्क। (ग्रंथ, not आगम)
कोई भी कार्य करने के लिए ये *पाँचों* का होना बहुत ज़रूरी है। इन्हें गुरु भगवंत मानते है और आगम बाधित नहीं समझते है। कुछ सरल से उदाहरान एक जीव अगर मोक्ष के लिए तीव्र पुरुषार्थ करें फिर भी मोक्ष प्राप्त नहीं हो तो बहुत सारी सम्भावनाएँ हो सकती है - जैसे अभी कर्म शेष है, जैसे लव सप्तम देव। शायद वह अभवि हो, (स्वभाव)। शायद पुरुषार्थ में कमी हो अभी। शायद मनुष्य ना हो, या वह संस्थान नहीं पाया हो, अकर्म भूमि में हो, या ग़लत आरे में हो।
*आगम में क्या फ़रमाया है*?
प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र में “पुरुषार्थ नहीं “ ऐसे एकांत वाद का खंडन किया है। एकांत नियतिवाद का स्पष्ट खंडन आगमों में कई जगह पर मिलता है।
सूत्रकृतांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ में अन्य तीर्थी की धारणा बतायी गयी है की - “जीव तो स्वयंकृत का अनुभव करते हैं और न ही अन्यकृत। वह तो सांगतिक/नियतिकृत होता है। ऐसा कुछ (नियतिवादी) कहते हैं।” इसका खंडन करते हुए भगवान फ़रमाते है “इस प्रकार कहने वाले मूढ़/अज्ञानी होते हुए भी स्वयं को पंडित मानते हैं। वे अज्ञ नहीं जानते कि कुछ सुख – दुःख नियत होते हैं और कुछ अनियत।” इसमें नियत और अनियत दोनो का होना बताया है।
श्रमणोपासक कुंडकोलिक ने देव (जो उन्हें सताने आया था) से कहा – देव ! यदि तुम्हें यह दिव्य ऋद्धि प्रयत्न, पुरुषार्थ, पराक्रम आदि किए बिना ही प्राप्त हो गई, तो जिन जीवों में उत्थान, पराक्रम आदि नहीं हैं, वे देव क्यों नहीं हुए ? देव चुप रहा और लौट गया। गोशालक के नियतिवाद का खंडन कर देव को निरुत्तर किया। उपासक दशांग सूत्र
श्रमण भगवान महावीर ने पूछा – सकडालपुत्र ! ये मिट्टी के बर्तन क्या प्रयत्न, पुरुषार्थ एवं उद्यम द्वारा बनते हैं, अथवा उसके बिना बनते हैं ?
आजीविकोपासक सकडालपुत्र ने कहा – भगवन् प्रयत्न, पुरुषार्थ तथा उद्यम के बिना बनते हैं। प्रयत्न, पुरुषार्थ आदि का कोई स्थान नहीं है, सभी भाव – नियत हैं तब
श्रमण भगवान महावीर ने कहा – सकडालपुत्र ! यदि कोई पुरुष तुम्हारे धूप में सुखाए हुए मिट्टी के बर्तनों को चुरा ले या यावत् बहार डाल दे, तो उस पुरुष को तुम क्या दंड दोगे ?
सकडालपुत्र बोला – भगवन् ! मैं उसे फटकारूँगा या पीटूँगा या यावत् असमय में ही उसके प्राण ले लूँगा।
भगवान महावीर बोले – सकडालपुत्र ! यदि उद्यम यावत् पराक्रम नहीं है। सर्वभाव निश्चित है तो कोई पुरुष तुम्हारे धूप में सुखाए हुए मिट्टी के बर्तनों को नहीं चुराता है न उन्हें उठाकर बाहर डालता है, न तुम उस पुरुष को फटकारते हो, न पीटते हो न असमय में ही उसके प्राण लेते हो। यदि तुम मानते हो कि वास्तव में कोई पुरुष तुम्हारे धूप में सुखाए मिट्टी के बर्तनों को यावत् उठाकर बाहर डाल देता है, तुम उस पुरुष को फटकारते हो या यावत् असमय में ही उसके प्राण ले लेते हो, तब तुम प्रयत्न, पुरुषार्थ आदि के न होने की तथा होने वाले सब कार्यों के नियत होने की जो बात कहते हो, वह असत्य है। इससे आजीविकोपासक सकडालपुत्र को संबोध प्राप्त हुआ और उन्होंने भगवान से श्रावक धर्म अंगिकार किया। उपासक दशांग सूत्र
देव विमान में उत्पत्ति के संदर्भ में बताया है कि - इस प्रकार वे अपने – अपने सुपुरुषार्थ से पूर्वोपार्जित शुभ, कल्याणमय शुभफलप्रद, मंगलरूप पुण्य कर्मों के कल्याणरूप फलविपाक का अनुभव करते हुए समय बिताते हैं। इसमें पुरुषार्थ और कर्म दोनों का महत्व स्पष्ट बताया है।
हे भगवन् ! क्या जीव कांक्षामोहनीय कर्म बाँधते हैं ? हाँ, गौतम ! बाँधते हैं। भगवन् ! जीव कांक्षामोहनीय कर्म किस प्रकार बाँधते हैं ? गौतम ! प्रमाद के कारण और योग के निमित्त से। ‘भगवन् ! प्रमाद किससे उत्पन्न होता है ?’ गौतम ! प्रमाद, योग से उत्पन्न होता है। ‘भगवन् ! योग किससे उत्पन्न होता है ?’ गौतम ! योग, वीर्य से उत्पन्न होता है। ‘भगवन् ! वीर्य किससे उत्पन्न होता है ?’ गौतम ! वीर्य, शरीर से उत्पन्न होता है। ‘भगवन् ! शरीर किससे उत्पन्न होता है ?’ गौतम ! शरीर जीव से उत्पन्न होता है। और ऐसा होने में जीव का उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार – पराक्रम होता है। अत एव उत्थान है, कर्म है, बल है, वीर्य है और पुरुषकार पराक्रम है। भगवती सूत्र शतक-१ उद्देशक-३
हे भगवन् ! जीवों का भवसिद्धिकत्व स्वाभाविक है या पारिणामिक है ? जयन्ती ! वह स्वाभाविक है, पारिणामिक नहीं। भगवती सूत्र।
हे भगवन् ! वस्त्र में जो पुद्गलों का उपचय होता है, वह क्या प्रयोग (पुरुष – प्रयत्न) से होता है, अथवा स्वाभाविक रूप से ? गौतम ! वह प्रयोग से भी होता है, स्वाभाविक रूप से भी होता है। भगवन् ! जिस प्रकार वस्त्र में पुद्गलों का उपचय प्रयोग से और स्वाभाविक रूप से होता है, तो क्या उसी प्रकार जीवों के कर्मपुद्गलों का उपचय भी प्रयोग से और स्वभाव से होता है ? गौतम ! जीवों के कर्मपुद्गलों का उपचय प्रयोग से होता है, किन्तु स्वाभाविक रूप से नहीं होता। यहाँ जीवों के Free Will और चेष्टा का महत्व बताया है। Automatic नहीं।
जैन धर्म का सार है की आत्मा ही करता है और आत्मा ही भोगता है। इसका मतलब ये नहीं की हम लापरवाही से जीवन व्यतीत करें। पत्थर उछाल कर, सर को नीचे रख कर “मेरे कर्मों का खेल है” ऐसा कहना मूर्खता होगी। जैसे एक कहावत है - “Believe in God, but lock your Car”.
बच्चों को समझाने के लिए सबसे best उदारहन आयुष कर्म और रस्सी का है। जन्म से ही रस्सी एक तरफ़ से जल रही है (आयुष कर्म हर समय खप रहें है।)। जब पूरी जल गई तो मृत्यु (आयु समाप्त)। उसी रस्सी को अगर आप दोनों तरफ़ से आग लगायें तो वह fast जलेगी। अगर उसे समेट कर, गुम्प कर petrol डाले तो super fast जल जाएगी जैसे आत्महत्या या murder में होता है। तो main switch अपने हाथ में है। स्व को पारितापना पहुंचाना और स्व के प्राण हरना भी बड़े पाप है। पहले व्रत में स्पष्ट है। अर्थ (उदीर्णा या निर्जरा हेतु) से शरीर को कष्ट देना अलग और अनर्थ ही carelessly जीवन के choices करना अलग है। हम बच्चों को ये अंतर समझाकर ज्ञानी की तरह जीने की प्रेरणा दे सकते है। वे जागृत और सतर्क रहेंगे।
अभी *नवकार सूत्र और मंगलिक* - इनसे आपके कर्म या events नहीं बदलेंगे पर आपके अध्यवसाय बदल जायेंगे। Life is not what happens to you, but how you react to what happens to you. जब अध्यवसाय शुभ होंगे, दृढ़ होंगे तो कोई भी परिशय में हम “जैन” तरीके से handle करेंगे। जैसे गजसुखमालजी ने Full Stop लगाया Comma नहीं।
मंगलिक सुनकर जब हम सोचे की चार (अरिहंत, सिद्ध, साधु-साध्वी, केवली प्ररूपित धर्म) सबसे मंगल है, चार सबसे उत्तम है और इन चार की शरण में मैं प्रवर्जित होता हूँ तो routine कार्य हो या सुदर्शन श्रावक जैसे उपसर्ग, हमारे अध्यवसाय शुभ होंगे और हमारे reactions सम्यक होंगे।
कुछ अधिक या कम लिखा हो, जिन वाणी से विपरीत लिखा हो तो क्षमा करें और कृपा कर सुधार करावें। 🙏