आयुष बंध में अबाधा काल
पन्नवणा सूत्र में आयुष्य बंध के तुरंत बाद आयुष कर्म का प्रदेशोदय शुरू हो जाता है भले ही विपाक उदय नरकादि गति में जाने पर ही शुरू होता है इस अपेक्षा बिना भोगी जाने वाली पहले भव की आयु में विपाकोदय नहीं, पर आयुष कर्म का प्रदेशोदय चालू हो जाने से अबाधाकाल नहीं माना गया है।
दूसरे कर्मों में प्रदेशोदय और विपाकोदय दोनों ही अबाधाकाल बीतने के बाद शुरू होते है।
यही तो कारण है आयुष कर्म के अबाधाकाल नहीं मानने का।
सिर्फ आयुषकर्म के बंधते ही इसका उदय(प्रदेश) शुरू हो जाता है।
दूसरे सात कर्मों में बंधकाल में से अबाधाकाल घटा कर कर्म निषेक होता है लेकिन आयुष कर्म में बंधते ही इसका निषेक शुरू हो जाता है।
इन दोनों अंतर के कारण ऐसा कह दिया जाता है कि आयुष्य कर्म का अबाधाकाल नहीं होता।
भगवती सूत्र में तो विपाक उदय की अपेक्षा से आयुष कर्म का भी अबाधाकाल भोगा जाने वाला वर्तमान भव का अवशेष आयुष्य मान लिया गया है।
आगम संदर्भ
- आयुष्यकर्म की बन्धस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि के त्रिभाग से अधिक तैंतीस सागरोपम की है। इसका कर्मनिषेक काल (तैंतीस सागरोपम का तथा शेष) अबाधाकाल जानना चाहिए। भगवती सूत्र शतक-६ उद्देशक-३ महाश्रव
- हे भगवन् ! नरकायु की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त – अधिक दस हजार वर्ष, उत्कृष्ट करोड़ पूर्व के तृतीय भाग अधिक तेतीस सागरोपम। तिर्यंचायु की स्थिति ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की, उत्कृष्ट पूर्वकोटि के त्रिभाग अधिक तीन पल्योपम की है। इसी प्रकार मनुष्यायु में जानना। देवायु की स्थिति नरकायु के समान जानना। प्रज्ञापना सूत्र पद-२३ कर्मप्रकृति
- भगवन् ! नारक तिर्यंचयोनिक, मनुष्य या देव ने जो पापकर्म किये हैं, उन्हें भोगे बिना क्या मोक्ष नहीं होता? हाँ, गौतम ! नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव ने जो पापकर्म किये हैं, उन्हें भोगे बिना मोक्ष नहीं होता। भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! मैंने कर्म के दो भेद बताए हैं। प्रदेशकर्म और अनुभाग – कर्म। इनमें जो प्रदेशकर्म है, वह अवश्य भोगना पड़ता है, और इनमें जो अनुभागकर्म है, वह कुछ वेदा जाता है, कुछ नहीं वेदा जाता। यह बात अर्हन्त द्वारा ज्ञात है, स्मृत है, और विज्ञात है कि यह जीव इस कर्म को आभ्युप – गमिक वेदना से वेदेगा और वह जीव इस कर्म को औपक्रमिक वेदना से वेदेगा। बाँधे हुए कर्मों के अनुसार, निकरणों के अनुसार जैसा – तैसा भगवान ने देखा है, वैसा – वैसा वह विपरिणाम पाएगा। गौतम ! इस कारण से मैं ऐसा कहता हूँ कि – यावत् किये हुए कर्मों को भोगे बिना नारक, तिर्यंच, मनुष्य या देव का मोक्ष नहीं है। भगवती सूत्र शतक-१ उद्देशक-४ कर्मप्रकृत्ति
- भगवन् ! जो नैरयिक मरकर अन्तर – रहित पंचेन्द्रियतिर्यञ्चोनिकों में उत्पन्न होने के योग्य हैं, भगवन् ! वह किस आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है ? गौतम ! वह नारक नैरयिक – आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है, और पंचे – न्द्रियतिर्यञ्चयोनिक के आयुष्य के उदयाभिमुख – करके रहता है। इसी प्रकार मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य जीव के विषय में समझना। विशेष यह है कि वह मनुष्य के आयुष्य को उदयाभिमुख करके रहता है। भगवन् ! जो असुरकुमार मरकर अन्तररहित पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य है, उसके विषय में पूर्ववत् प्रश्न है। गौतम ! वह असुरकुमार के आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है और पृथ्वीकायिक के आयुष्य को उदयाभिमुख करके रहता है। इस प्रकार जो जीव जहाँ उत्पन्न होने के योग्य है, वह उसके आयुष्य को उदयाभि – मुख करता है, और जहाँ रहा हुआ है, वहाँ के आयुष्य का वेदन करता है। इस प्रकार वैमानिक तक जानना चाहिए। विशेष यह है कि जो पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिकों में ही उत्पन्न होने योग्य है, वह अपने उसी पृथ्वी – कायिक के आयुष्य का वेदन करता है और अन्य पृथ्वीकायिक के आयुष्य को उदयाभिमुखकरके रहता है। इसी प्रकार मनुष्य तक स्वस्थान में उत्पाद के विषय में कहना चाहिए। परस्थान में उत्पाद के विषय में पूर्वोक्तवत् समझना चाहिए। भगवती सूत्र शतक-१८ उद्देशक-५ असुरकुमार
- भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध, स्पृष्ट, बद्ध और स्पृष्ट किये हुए, सचित्त, चित्त और अपचित्त किये हुए, किञ्चित्विपाक को प्राप्त, विपाक को प्राप्त, फल को प्राप्त तथा उदयप्राप्त, जीव के द्वारा कृत, निष्पादित और परिणामित, स्वयं के द्वारा दूसरे के द्वारा या दोनों के द्वारा उदीरणा – प्राप्त, आयुष्यकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव है ? गौतम ! चार प्रकार का – नारकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु। जिस पुद्गल का यावत् पुद्गलों के परिणाम का या उनके उदय से आयुष्यकर्म वेदा जाता है, गौतम ! यह है – आयुष्यकर्म। प्रज्ञापना सूत्र पद-२३ कर्मप्रकृति
- भगवन् ! आयुष्य का बन्ध कितने प्रकार का है ? गौतम ! छह प्रकार का। जातिनामनिधत्तायु, गतिनाम – निधत्तायु, स्थितिनामनिधत्तायु, अवगाहनानामनिधत्तायु, प्रदेशनामनिधत्तायु और अनुभावनामनिधत्तायु। भगवन् ! नैरयिकों का आयुष्यबन्ध कितने प्रकार का कहा है ? पूर्ववत् जानना। इसी प्रकार वैमानिकों तक समझ लेना। भगवन् ! जीव जातिनामनिधत्तायु को कितने आकर्षों से बांधते हैं ? गौतम ! जघन्य एक, दो या तीन अथवा उत्कृष्ट आठ आकर्षों से। इसी प्रकार वैमानिक तक समझ लेना। इसी प्रकार गतिनामनिधत्तायु यावत् अनुभावनामनिधत्तायु को जानना। भगवन् ! इन जीवों में यावत् आठ आकर्षों से बन्ध करनेवालों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे कम जीव जातिनामनिधत्तायु को आठ आकर्षों से बांधने वाले हैं, सात आकर्षों से बांधने वाले (इनसे) संख्यातगुणे हैं, यावत् इसी अनुक्रम से एक आकर्ष से बांधने वाले (इनसे भी) संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार गतिनामनिधत्तायु यावत् अनुभावनामनिधत्तायु को (जानना।) इसी प्रकार ये छहों ही अल्पबहुत्व – सम्बन्धी दण्डक जीव से आरम्भ करके कहना। प्रज्ञापना सूत्र पद-६ व्युत्क्रान्ति
- भगवन् ! आयुष्य का कितना भाग शेष रहने पर नैरयिक परभव का आयु बांधता है ? गौतम ! नियत से छह मास आयु शेष रहने पर। इसी प्रकार असुरकुमारों से स्तनितकुमारों तक कहना। भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव आयुष्य का कितना भाग शेष रहने पर परभव का आयु बांधते हैं ? गौतम ! पृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैं, सोपक्रम आयुवाले और निरुपक्रम आयुवाले। जो निरुपक्रम आयुवाले हैं, वे नियम से आयुष्य का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव की आयु का बन्ध करते हैं तथा सोपक्रम आयुवाले कदाचित् आयु का तीसरा भाग शेष रहने पर, कदाचित् आयु के तीसरे का तीसरा भाग शेष रहने पर और कदाचित् आयु के तीसरे के तीसरे का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव का आयुष्यबन्ध करते हैं। अप्कायिक यावत् वनस्पतिकायिकों तथा विकलेन्द्रियों को इसी प्रकार कहना। भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक, आयुष्य का कितना भाग शेष रहने पर परभव की आयु बांधता है ? गौतम! पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक दो प्रकार के हैं। संख्यातवर्षायुष्क और असंख्यातवर्षायुष्क। जो असंख्यात वर्ष आयुवाले हैं, वे नियम से छह मास आयु शेष रहते परभव का आयु बांधते हैं और संख्यातवर्ष आयुवाले हैं, वे दो प्रकार के हैं। सोपक्रम और निरुपक्रम आयुवाले। निरुपक्रम आयुवाले हैं, नियमतः आयु का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव का आयुष्यबन्ध करते हैं। सोपक्रम आयुवाले का कथन सोपक्रम पृथ्वीकायिक समान जानना। मनुष्यों को इसी प्रकार कहना चाहिए। वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों को नैरयिकों के समान कहना। प्रज्ञापना सूत्र पद-६ व्युत्क्रान्ति
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