Introduction
अब नौ तत्त्वों का संक्षेप से स्वरूप कहते हैं-
- जीव - जो प्राणों को धारण करे, वह जीव । प्राण के दो भेद हैं; - द्रव्यप्राण और भावप्राण। पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल, श्वासोच्छवास और आयु- ये दस, द्रव्य प्राण हैं। ज्ञान, दर्शन आदि स्वभाविक गुणों को भावप्राण कहते हैं। मुक्त जीवों में भाव प्राण होते हैं। संसारी जीवों में द्रव्यप्राण और भावप्राण दोनों होते हैं। जीव तत्त्व के चौदह भेद हैं।
- अजीव - जिसमें प्राण न हो - अर्थात् जड़ हो, वह अजीव । पुद्गल, धर्मास्तिकाय, आकाश आदि अजीव हैं। अजीव तत्त्व के भी चौदह भेद हैं।
- पुण्य — जिस कर्म के उदय से जीव को सुख का अनुभव होता है, वह द्रव्यपुण्य; और जीव के शुभ परिणाम दान, दया आदि भावपुण्य हैं। पुण्य तत्त्व के बयालीस भेद हैं।
- पाप - जिस कर्म के उदय से जीव दुःख का अनुभव करता है, वह द्रव्यपाप और जीव का अशुभ परिणाम भाव पाप है। पाप तत्त्व के बयासी भेद हैं।
- आस्रव — कर्मों के आने का द्वार, जो जीव के शुभ-अशुभ परिणाम हैं, को भावास्रव तथा शुभ-अशुभ परिणामों को उत्पन्न करने वाली अथवा शुभ-अशुभ परिणामों से स्वयं उत्पन्न होने वाली प्रवृत्तियों को द्रव्यास्रव कहते हैं। आस्रव तत्त्व के बयालीस भेद हैं।
- संवर - आते हुये नये कर्मों को रोकने वाला आत्मा का परिणाम, भाव संवर और कर्म - पुद्गल की रूकावट को द्रव्य संवर कहते हैं। संवर तत्त्व के सत्तावन भेद हैं।
- बन्ध - कर्म पुद्गलों का जीव प्रदेशों के साथ दूध पानी की तरह आपस में मिलना, द्रव्यबन्ध है । द्रव्यबन्ध को उत्पन्न करने वाले अथवा द्रव्यबन्ध से उत्पन्न होने वाली आत्मा के परिणाम भावबन्ध हैं। बन्ध के चार भेद हैं।
- निर्जरा - कर्मों का एक देशीय आत्म- प्रदेशों से अलग होना द्रव्यनिर्जरा है । द्रव्यनिर्जरा के जनक अथवा द्रव्यनिर्जरा जन्य आत्मा के शुद्धपरिणाम, भावनिर्जरा है । निर्जरा के बारह भेद हैं।
- मोक्ष - सम्पूर्ण कर्म- पुद्गलों का आत्म- प्रदेशों से जुदा हो जाना द्रव्यमोक्ष है। द्रव्यमोक्ष के जनक अथवा द्रव्यमोक्ष- जन्य आत्मा के विशुद्धपरिणाम भावमोक्ष है। मोक्ष के नौ भेद हैं।